Book Title: Nandanvan Kalpataru 2009 10 SrNo 23
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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मनस्तुरगारोहरसिकाः के न हन्त निपातिताः ? क्वचिदहो पश्चात्तपन्त्यैतिगर्ते सान्चयम् ॥ ११॥
हन्त तत एवाऽभिराजस्साग्रहं कुरुतेऽर्थनाम् विहर मातृभुवोऽञ्चले ननु वत्सलेऽप्यकुतोभयम् ॥ १२ ॥
इह न यात्रा परवशा, शिवमशिवमपि नो परवशम् जीवनं स्ववशेऽखिलं विलसति धरण्यां श्रीमयम् ॥ १३ ॥
(2)
नेदशी दुर्दशा
हन्त दृष्टा पुरा नेदशी दुर्दृशा राजनीतिर्यथा शास्ति सर्वङ्कषा ॥१॥
राजते सौधसानौ स काकोऽधमः तन्वतेऽज्ञातवासं पिकाः सारसाः ॥२॥
निर्विषाणा लुलाया द्रवन्त्याहताः शृङ्गवन्तो भ्रमन्तीव वन्याः शशाः ॥३॥
शूलमारोप्यते सत्यवादी पुनः यो द्विजिह्वास्स एवाऽद्य चञ्चद्यशाः ॥४॥
सर्वसौख्योपपन्नाः समाजन्तुदाः भिक्षते देवनिष्ठा दधत्क्षुत्तृषा ॥५॥
हन्त, माहात्म्यमेतत्कलेर्दृश्यताम् मूषिकाः सन्ति पुष्टा गजेन्द्राः कृशाः ॥६॥ भाषते मुक्तसिंहोऽपि वाचा शुनः शास्त्यरण्यं शृगाली भृशं कर्कशा ॥७॥
किन्तु कुर्वन्त्वमी राजहंसाः सखे ! शास्ति वापीं बकस्तत्प्रजास्ते झषाः ॥८॥
दीपकैर्नोऽपनेतुं क्षमेयं निशा सूर्यमेवेक्षते तद्विपन्ना रसा ॥९॥
१३
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