Book Title: Nadi Darpan
Author(s): Krushnalal Dattaram Mathur
Publisher: Gangavishnu Krushnadas

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ नाडीदर्पणः । देहस्य सम्यङ् नाडी न बुध्यते ॥ २ ॥ तैलाभ्यक्ते रतेरन्ते भोजनान्ते तथैव च । उद्वेगादिषु नाडी च न सम्यगवबुध्यते ॥३॥ सुप्तस्य " अर्थ - तत्काल स्नान करा हो, तत्काल भोजन करा हो, अथवा 66 अर्थात निद्रित, क्षुधित, तृषार्त्त, गरमी घबडाया हुआ, तथा व्यायामद्वारा थकित देह जिसका ऐसे मनुष्यकी नाडी भलेप्रकार प्रतीत नहीं हो उसीप्रकार जिसने तेल लगाया हो; मैथुनान्तमें भोजनके मध्यमें उद्वेग आदि समय में नाडीकी यथार्थगति निश्चय नहीं हो अतएव वैद्य इन समयोंमें नाडी परीक्षा न करे किंतु रोगीका चित्त जिससमय स्वस्थहोय तब नाडी देखे परंतु वात मूच्छदिक क्षणिक रोगोंम यह उक्तनियम नहीं है ॥ २ ॥ ३ ॥ नाडीदेखने योग्य वैद्य | स्थिरचित्तः प्रसन्नात्मा मनसा च विशारदः । स्पृशेदङ्गुलिभिर्नाडीं जानीयाद्दक्षिणे करे ॥ ४ ॥ अर्थ - अब नाडी देखने योग्य वैद्य कहते है कि जो स्थिरचित्त और प्रसन्न आत्मा तथा मनकरके चतुर ऐसा वैध तीन उंगलीयोंसें दहने हाथकी नाडीका स्पर्श करके उसकी गतीकी परीक्षा करे ॥। ४ ॥ मढवैद्य | पीतमद्यश्चञ्चलात्मा मलमूत्रादिवेगयुक् । नाडीज्ञानेऽसमर्थः स्याल्लोभाकान्तश्च कामुकः ॥ ५ ॥ अर्थ - जिसने मद्य पीरक्खाहो, और चंचलचित्त, मल मूत्र बाधा लग रहीं हो, लोभी और कामीहो ऐसे वैद्यको नाडी न दिखावे, क्योंकि यह नाडीके जाननेमें असमर्थ है ।। ५ ॥ नाडी देखने योग्य रोगी । त्यक्तमूत्रपुरीषस्य सुखासीनस्य रोगिणः । अन्तर्जानुकरस्यापि नाडी सम्यक् प्रबुद्धयते ॥ ६ ॥ अर्थ - अब नाडी देखनेके योग्य रोगी कहते है, कि जो मलमूत्रका परित्याग १ तैलाभ्यंगे च सुप्ते च तथा च भोजनान्तरे । तथा न ज्ञायते नाडी यथा दुर्गतरा नदी इति पाठान्तरम् । For Private and Personal Use Only

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