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आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा सुव्यक्तता निर्मलत्वं स्वस्थानस्थितिरेव च।
अमन्दत्वमचाञ्चल्यं सर्वासां शुभलक्षणम् ॥४९॥ अर्थ-उत्तम प्रकारसैं प्रतीतहो निर्मल अपने स्थानमें स्थिति, अमंदत्व और चांचल्यता रहितहो येसंपूर्ण नाडियोंके शुभ लक्षण जानने ॥ १९॥
दोषसाम्याच सादृश्यादनुक्तासु रुजास्वपि।
ज्ञातव्या धमनीधर्मा युक्तिभिश्चानुमानतः॥५०॥ अर्थ-यह कितनेएक रोगोंमें नाडीकी प्रकृति लिखी है, इस्सै भिन्न अन्य समस्त रोगोंमें जैसी जैसी नाडियोंकी गति होती है उसको वैद्य अनुमान और युक्तिद्वारा जाने, अर्थात् जिस रोगकी जिस जिस रोगके साथ सादृश्यताहै अथवा जिसकिसी रोगमें संपूर्ण कुपितदोषोंके साथ अन्य किसीरोगके कुपित दोषोंकी साम्यता मिले उन उन रोग समस्तोंमें नाडीकी एकविध गति होती है ऐसा जानना ॥५०॥
नाडीदर्शनानंतरहस्तप्रक्षालन । नाडी दृष्ट्वा तु यो वैद्यो हस्तप्रक्षालनं चरेत् ।
रोगहानिर्भवेच्छीघ्र गंगास्नानफलं लभेत् ॥५१॥ अर्थ-जो वैद्य रोगीकी नाडी देवखकर हाथको जलसें धोताहै, तो जिसरोगीकी नाडीदेखी उसका रोग शीघ्र नष्टहोय, और वैद्यको गंगास्नानका फल प्राप्तहोय ॥५१॥
तथाच । यो रोगिणः करं स्पृष्ट्वा स्वकरं क्षालयेद्यदि।
रोगास्तस्य विनश्यन्ति पङ्कःप्रक्षालनाद्यथा ॥५२॥ अर्थ-जो वैद्य रोगीकी नाडी देख अपने हाथको धोताहै इसकर्मसै जैसे धोने सै कीच जाती है इसप्रकार उस रोगीका रोग दूर होताहै ॥ ५२ ॥
इति श्रीपाठकज्ञातीयमाथुरकृष्णलालसूनुना दत्तरामण निर्मिते आयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघंटुरत्नान्तर्गते नाडीदर्पणे आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षावर्णनंनामचतुस्त्रिंशस्तरङ्गः ॥ ३४ ॥
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