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(नाही प्रकाश १५) कमेकादि गतिं तयाचपलां॥४॥ टीका॥वान अधिक होने से नाडी सर्प जोंक कीसी चालचलती है और पित की अधिकतासे कोरो कीसी तथा मेडक कीचालच लती और चपल भी चलती है।४
अतरावच पितस्य ज्ञायतेच पला गतिः॥वका प्रमजनस्या पिवेधे में
दाकफस्यच॥ ४९ ॥ टीका॥इस वास्ते वैद्यों ने पित की नाडी की चपल गति कही है। ओर वायु की वक गति और कफ की मंद गति कही है।
अन्यच करांगुष्ट मूलो द्रवा प्राणभूतानृणा रोगीगासाक्षिणी सौख्य भाजा॥ज लो कोरगानी गति नाडिका यो बिते
निरुता चवातात्मिकासा॥४२॥ टीका॥हाथ के अंगूठे के मूल में अर्थात् जड़में मनुष्यों के सरव दुरव की साक्षी देन वारी नाडी कहिये वो नाडी जोक वा सर्प कीसी चाल चलेतो वात की अधिकता जानिये॥४२॥
विधुत गतिं काक मंडकुयायीमु जीन्द्र निरुताचापितासिकासा॥ शिराहं सयारावता नां गति याद धाति स्थिर श्लेष्मको पान्विता
सा॥४३॥ टीका।और जो नाडी काक मेंडक कीसी गति चले तो मुनियों ने उसे पित्त की नाडी कही है और जो हंस कबूतर की चाल चले
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