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(नाडी प्रकाश- २६)
काष्ट कष्टो यथा काष्टं कुहते चाति वेगतः ॥ स्थित्वा स्थित्वा तथा ना .डी सचि पाते भवेद्धवम् ॥ ७४ ॥ टीका । जैसे काष्ट के फाड़ने वाला काष्ट को यम थम के फाड़ ता है तेसेही सति पात में नाडी जानो ॥ कंम्पते स्यदते ऽत्यं तं पुन:स्पृश ति चांगुली ॥ ताम साध्या विजानी या न्नाड़ी दूरेगा वर्जयेत् ॥ ७५ ॥ टीका । जिस रोगी की नाडी कंपे मोर चलती बंद हो जाय और फिर अंगुलीन को स्पर्श करने लगे ऐसे रोगी को असा ध्य जान के बैद्य दूर सेही त्यागन करे ॥
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अन्यच
सुखे नाडी यदा नास्ती मध्येशेत्य वहि लमः ॥ यदा मन्दा वहे नाडी सत्रि रात्रं न जीवति ॥ ७६ ॥ टीका । जिस मनुष्य की पित की नाडी नष्ट होगई होय और राध्य में बात की नाही शीतल होगई होय और बाहर र ग्लानि हो मोर नाड़ी मंद मंद गति चल रही होय तो ऐसा रोगी तीन रात नहिं जावेगा ॥ ७६ ॥
मध्ये रेखा समा नाडी यदि तिष्ट तिनिश्वला ॥ पूड भिम्व हरैस्त स्य मृत्यु ज्ञेया चिचक्षणा ॥ ७७ ॥ टीका । जिस रोगी की नाड़ी बात स्थान से जो रेखा सरीखी
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