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(नाड़ी प्रकाश १६ । उसे कफाधिक जानिये॥
अन्यच नाडी चंचलता काचच्छथिलताशेत्यं क्वचि दुष्णा तो ॥धते मंदगतिद्वि दोष कुपितस्थानच्युति क्षीगाता॥ ४४ ॥ वूका कार गति क्वचि द्बित नुने प्रामो निकम्प कृचिद कलपम्विदधाति
या ति कुपिता मासांन्तरे सानिशम् टीका-द्वि दोय को नाडी चंचल कभी सिथल कभी शीतल क भी गरम ओर मंद और विकलता को प्राप्त भई गमन करतीहै| और स्थान को छोड़ देय पोर बहुत धीरे धीरे चले और क भी टेढी चले मोर कभी कांपी विकलता को प्राप्त भई ऐसी | नाडी एक महीने के भीतर रोगी के प्राणों को हरती है।
विदोषा न्विता नाडिका चंचलो एमा स्फुर द्वि विरुया त्वरायु विभिन्ना॥ गाँते तेतरोयं विधतेति कंपम्क्षगांक्षी
गतां याति मूर्छ वचित्सा॥ ४६॥ टीका-सन्नि पात की नाडी चपल और गरम और दो तीन प्रकार की चाल चलै वो नाडी जलदी मायके काटने वाली है।
ओर तीतर कीसी चाल चले और बहुत कापे और मंद मंद चले और कभी चलने में रहि जाय उसे सीत की नाड़ी जानों
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