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आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा मलाजीणे नातितरां स्पन्दनं च प्रकीर्तितम् ॥७॥ अर्थ-कफके प्रकोपमें नाडी तंतुवत् सूक्ष्म, मंदवेगवाली, और शीतल होती है । और मलाजीर्णमें अत्यंत नहीं फडकती ॥ ७ ॥
द्वंद्वजनाडी चञ्चला तरला स्थूला कठिना वातपित्तजा । इंषच्च दृश्यते तूष्णा मन्दा स्याच्छेष्मवातजा ॥८॥निरन्तरं खरं रूक्षं मन्दश्लेष्मातिवातलम् । रूक्षवाते भवेत्तस्य नाडी स्यात्पित्तसनिभा॥९॥ सुक्ष्मा शीता
स्थिरा नाडी पित्तश्लेष्मसमुद्भवा ॥ १० ॥ अर्थ-वातपित्तकी नाडी चंचल, तरल, स्थूल, और कठोर होती है । वातकफकी नाडी कुछ गरम और मंदगामिनी होती है । जिस नाडीमें किंचिन्मात्र कफ और अधिक वात होती है । वह अत्यंत खर और रूक्ष होती है । जिसके नाडीमें . वायुका अत्यंत कोप होय उसकी पित्तके सदृश अर्थात अत्यंत वक्र और अत्यंत स्थूल होय, पित्तकफज्वरमें नाडी सूक्ष्म शीतल, और मन्दवेगवाली होती है ॥ १० ॥
रुधिरकोपजानडी। मध्ये करे वहेनाडी यदि सन्तापिता ध्रुवम् ।
तदा नूनं मनुष्यस्य रुधिरापूरितामलाः ॥११॥ अर्थ-मध्य करमें अर्थात् मध्यमांगुली निवेशस्थल में नाडी संतापित होकर तडफे तो जानेकि वातादि दोषत्रय रक्तप्रकोपकरके परिपूर्ण है । अर्थात् रुधिरसैं दूषितहै ॥ ११ ॥
__ आगन्तुकरूपभेदमाह । भूतज्वरे सेक इवातिवेगात् धावन्ति नाड्यो हि यथाब्धिगामाः । अर्थ-भूतज्वरमें नाडी अत्यंत वेगसैं चलती है जैसें समुद्रमें जानेवाली नदियोंका प्रवाह वेगसैं चलता है ॥ १२ ॥
तथा।
एकाहिकेन वचन प्रदूरे क्षणान्तगामा विषमज्वरेण ॥ १ वक्रा च ईपञ्चपला कठिना वातपित,जा इति पाठान्तरम् ।
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