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नाडीदर्पणः । स्थाके वा धारामें वहनेवाले मैंडकाके समान तथा सांनिपातिक स्वरकी पूर्व अव स्थाके प्रमाण नाना आकृतिसें गमन करे ॥ १ ॥
ज्वरके रुपमें। ज्वरकोपेन धमनी सोष्णा वेगवती भवेत् ॥२॥ अर्थ-जिस कालमें इसप्राणीको ज्वर चढआताहै उस समय नाडी गरम और वेगवती होती है ॥ २॥
उष्मा पित्ताहते नास्ति ज्वरो नास्त्यूप्मणा विना।
उष्णा वेगधरा नाडी ज्वरकोपे प्रजायते ॥३॥ अर्थ-विना पित्तके गरमी नहीं और विना गरमीके ज्वर नहीं होता अतएव ज्वरके वेगमें नाडी गरम और वेगवान होती है ॥ ३ ॥
ज्वरे च वक्रा धावन्ती तथा च मारुतप्लवे ।
रमणान्ते निशि प्रातस्तथा दीपशिखा यथा ॥४॥ अर्थ-ज्वरके कोपमें और वादीमें नाडी टेढी और दोडती चलती है तथा मैथुनकरनेके पिछाडी रात्रिमें और प्रातःकाल में नाडी दीपशिखाके समान मंद गमन करती है ॥ ४ ॥
वातज्वरे । सौम्या सूक्ष्मा स्थिरा मन्दा नाडी सहजवातजा। स्थूला च कठिना शीघ्रा स्पन्दते तीव्रमारुते ॥५॥
वक्रा च चपला शीतस्पर्शा वातवरे भवेत् । अर्थ-स्वाभाविक वायुके द्वारा नाडी कोमल, सूक्ष्म, स्थिर, और मंद वेगवाली होती है । तीबवायुद्वारा नाडी स्थूल, कठिन, तथा जल्दी चलनेवाली होती है । और वातज्वरमें टेढी, चपल, तथा शीतल स्पर्शवान् नाडी होती है ॥ ५ ॥
द्रुता च सरला दीर्घा शीघ्रा पित्तज्वरे भवेत् ।
शीघ्रमाहननं नाड्याः काठिन्याचलते तथा ॥६॥ अर्थ-पित्तज्वरमें नाडी शीघ्र चलनेवाली, सरल, दीर्घ, और कठिनताके साथ शीघ्र फडकनेवाली होती है ॥ ६॥
नाडी तन्तुसमा मन्दा शीतला श्लेप्मदोषजा। ९ मंदाच मुस्थिग शीता पिच्छला श्लोप्मिनाये। इति पाठांतरम् ।
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