Book Title: Nadi Darpan
Author(s): Krushnalal Dattaram Mathur
Publisher: Gangavishnu Krushnadas

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Page 53
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः। __ अर्थ-अनाह अफरा और मूत्रकृच्छ्र रोगमें नाडी गुरुतर अर्थात् भारी होती है । शूलरोगे। वातेन शूलेन मरुत्प्लवेन सदैव वक्रा हि शिरा वहन्ती। ज्वालामयी पित्तविचेष्टितेन साध्या न शूलेन च पुष्टिरूपा॥२३॥ अर्थ-वायुशूलमें और वायुके प्रखरता निबंधनमें नाडी सदैव अत्यंत टेढी चलती है पित्तके शूलमें यह अतिशय गरम होती है। और आमशूलमें पुष्टियुक्त होती है ॥ २३ ॥ प्रमेहज्ञान। प्रमेहे ग्रन्थिरूपा सा सुतप्ता त्वामदूषणे। अर्थ-प्रमेह रोगमें नाडी ग्रंथि अर्थात् गांठके आकार प्रतीत होयहै और आमवात रोगमें नाडी सर्वकालमें उष्ण होती है ॥ विषविष्टम्भगुल्मज्ञानम् । उत्पित्सुरूपा विपरिष्टकायां विष्टम्भगुल्मेन च वकरूपा। अत्यर्थवातन अधः स्फुरन्ती उत्तानभेदिन्यसमाप्तकाले॥२४॥ अर्थ-विषभक्षण वा सादि दंशजन्य अरिष्टलक्षण प्रकाशित होनेसें त. कालमें नाडी देखनेसैं बोधहोयहैं । कि इसके यह रोगकी नवीन उत्पन्न होताहै। और विष्टंभ तथा गुल्म रोगमे विषके तुल्य और विशेषता यह होतीहै कि उसनाडीकी गति वक्ररूप होती है। इन दोनों पीडामें अत्यंत वायुका प्रकोप होनेसे नाडी अधस्फुरित होय एवं इनकी असंपूर्णावस्थामें अर्थात् पूर्वरूपावस्थामें नाडी अत्यंत ऊर्ध्व गतिहोय ॥ २४ ॥ गुल्मे विशेषमाह । गुल्मन कम्पाथ पराक्रमेण पारावतस्येव गतिं करोति ॥२५॥ अर्थ-गुल्मरोगमें नाडी कंपितहो बलपूर्वक खवुतरकी तुल्य गमन करती है । अथ भगन्दरज्ञानम् । व्रणाथै कठिने देहे प्रयाति पैत्तिकं क्रमम् । भगन्दरानुरूपेण नाडीव्रणनिवेदने॥२६॥प्रयाति वातिकं रूपं नाडीपावकरूपिणी अर्थ-व्रणरोगकी अपक्कअवस्थामें नाडीको गति पैत्तिक नाडीके तुल्य होती है । For Private and Personal Use Only

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