Book Title: Nadi Darpan
Author(s): Krushnalal Dattaram Mathur
Publisher: Gangavishnu Krushnadas

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Page 39
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३ नाडीदर्पणः । त्रिदोषकीनाडी । उरगादिलावकादि हंसादीनाञ्च विभ्रती गमनम् ॥ ५७ ॥ वातादीनाञ्च समं धमनी सम्बन्धमाधत्ते । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - वातादि त्रिदोष के समान होने से नाडी सर्प, लवा, और हंस आदि पक्षियों के समान गमन करती है । समके कहने से न्यूनाधिक्यका त्याग यदि नाडी तीनो दोषोंकी क्रमस चले तो असाध्य नहीं है ॥ ५७ ॥ लावतित्तिरवार्ताकगमनं सन्निपाततः ॥ ५८ ॥ कदाचिन्मन्दगमना कदाचिच्छीघ्रगा भवेत् । त्रिदोषप्रभवे रोगे विज्ञे या हि भिषग्वरैः ॥ ५९ ॥ अर्थ-लवा तीतर और वटेरकी चाल नाडी संनिपातके कोपसैं करती है कभी मंदगमन करे, और कभी शीघ्रगमनकरे, ऐसी नाडी त्रिदोषजन्य रोगमें वैद्योंको जाननी चाहिये इस त्रिदोष में पित्तके क्रमसैं साध्यासाध्य और कृच्छ्रसाध्य जानना अर्थात् अधिक पित्त साध्य, मध्यसै कष्टसाध्य, और पित्त सर्वथा नाडीमें न होयतो वह रोगी असाध्यहै || ५८ ॥ ५९ ॥ सामान्यतापूर्वक सुखसाध्यत्व । यदा यं धातुमाप्नोति तदा नाडी तथागतिः । तथा हि सुखसाध्यत्वं नाडी ज्ञानेन बुध्यते ॥ ६० ॥ अर्थ - नाडी जिससमय जिसधातुमें प्राप्तहोय उससमय यदि उसका प्रकृति अनुसार चलना होय तो पीडा सुखसाध्य ऐसे नाडीज्ञानकरके जानी जाती है इसका निष्कृष्टार्थ यह है कि अपराह्नादि कालमें वातोल्बणा नाडी प्रथम वातकी गति करके चले, फिर क्रमसैं पित्त और कफकी चालचले, किंतु पित्तोल्बणा वातगतिसें न चले तो सुखसाध्य जाननी यदि इसे विपरीतहोय तो विपरीत अर्थात् असाध्य जाननी जैसे किसीने कहा है " नाडी यथा कालगतिस्त्रयाणां प्रकोपशान्त्यादिभिरेव भूयः ॥ ६० ॥ असाध्यत्व | मन्दं मन्दं शिथिलशिथिलं व्याकुलं व्याकुलं वा स्थित्वा स्थित्वा वहति धर्मनी याति नाशं च सूक्ष्मा । For Private and Personal Use Only

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