________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
नाडीदर्पणः । उत्तरोत्तर मंद पडजावे ऐसी नाडीको नाडीके ज्ञाता साध्य नहींकहते, किंतु असाध्य कहतेहै ॥ ६४ ॥
यात्युच्चा च स्थिरात्यन्ता या चेयं मांसवाहिनी ।
या च सूक्ष्मा च वक्रा च तामसाध्यां विदुर्बुधाः॥६५॥ अर्थ-जो नाडी अत्यंत ऊंची, अत्यंत स्थिर. और जो मांसवाहिनी कहिये मांसाहारकरनेसे जैसी चले ऐसी चलने लगे और जो अत्यंत सक्ष्म, और टेढीहो उसको वैद्यजन असाध्य कहतेहै ।। ६५ ।।
असाध्यनाडीका परिहार । भारप्रवाहमूर्छा भयशोकप्रमुखकारणानाडी।
संमूच्छितापि गाढं पुनरपि सा जीवनं धत्ते ॥६६॥ अर्थ-अत्यंत वोझाके उठानेसें, अथवा विषवेग धाराके वहनेस, रुधिरदेखनेके कारण जो मूर्छित हो गयाहो राक्षसादि दर्शनकरके भयभीततासे धनपुत्रादि नष्ट होनेके शोकसैं जो नाडी अत्यंत स्पन्दरहितभी होगईहो वा फिरभी साध्यताको प्राप्त होतीहै कोई भावप्रवाह ऐसा पाठमानताहै सो असत्है ॥ ६६ ॥
पतितः सन्धितो भेदी नहशुक्रश्च यो नरः।
शाम्यते विस्मयस्तस्य न किञ्चिन्मृत्युकारणम् ॥६७॥ अर्थ-जो उच्चस्थानादिसें गिराहो, हड्डी आदिके जोडनेसैं, अतीसार रोग वाला, जिसकैं यक्ष्मा आदि रोगके कारण अथवा रमणकरनेके कारण शुक्रक्षीण होगयाहो, ऐसे मनुष्योंकी यदि नाडी अत्यंत क्षीणभी होगईहो तथापि मृत्युका कारण नहींहै, अर्थात् असाध्यके विस्मयको दूरकरहै ॥ ६७ ॥ तथा भूताभिषङ्गेऽपि त्रिदोषवदुपस्थिता । समाङ्गा वहते नाडी तथा च न क्रमंगता। अपमृत्युन रोगाङ्गा नाडी तत्सन्निपातवत् ६८
अर्थ-एवं भूताभिषंग अर्थात भूतप्रेतबाधामें यदि नाडी सन्निपातके सदृश चले तथा वह नाडी वात पित्त कफ स्वभावक्रमवालीहो किंतु वे क्रम न होय तो उस सन्निपातके सदृश नाडीसैंभी मृत्युका भय नहींहै ॥ ६८ ॥
स्वस्थानहीने शोके च हिमाकान्ते च निर्गदाः ।
भवन्ति निश्चला नाड्यो न किञ्चित्तत्र दूषणम् ॥ ६९॥ अर्थ-उच्चस्थानसैं गिरनेसैं शोक और हिम ( बर्फ कोहल आदिकी शरदी)
For Private and Personal Use Only