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नाडीदर्पणः ।
शीघ्रा नाडी मलोपेता मध्याह्नेग्रिसमो ज्वरः । दिनैकं जीवितं तस्य द्वितीयेऽह्नि म्रियेत सः ॥ ८७॥
अर्थ - जिस रोगीकी त्रिदोषयुक्त नाडी बहुत जल्दी चले, तथा जिसको मध्याह्नमें अनके समान ज्वर आवे, उस रोगीकी आयु एकदिनकी है दूसरे दिन मृत्यु होय ८७ ॥ स्कन्देन स्पन्दते नित्यं पुनर्लगति नाङ्गलौ ।
मध्ये द्वादशयामानां नृत्युर्भवति निश्चितम् ॥ ८८॥
अर्थ- जो नाडी अपने मूलस्थान में फडके नही और ऊपलीयोंका स्पर्श न करे उसकी बारह प्रहरमें मृत्युहीय. ऐसा जानना ॥ ८८ ॥
स्थित्वा नाडी मुखे यस्य विद्युदयोतिरिवेक्षते । दिनैकं जीवितं तस्य द्वितीये म्रियते ध्रुवम् ॥ ८९ ॥
अर्थ - जिस रोगीकी नाडी मूलस्थानके अग्रभागमें ठहरकर बिजली के सदृश तडफजावे वह एकदिन जीवे, दूसरे दिन निश्चय मरे ॥ ८९ ॥ स्वस्थानविच्युता नाडी यदा वहति वा न वा ।
ज्वाला च हृदये तीव्रा तदा ज्वालावधि स्थितिः ॥ ९० ॥ अर्थ- जिस रोगीकी नाडी अपने स्थानसें विच्युत हो ( छट ) कर कभी चले कभी नहीं और हृदयमें तीव्र दाहहोय तो जबतक हृदयमें ज्वाला तावत्काल रोगीका जीवन है ॥ ९० ॥
अङ्गुष्ठमूलतो बाह्ये व्यङ्गुले यदि नाडिका ।
प्रहराद हिमृत्युं जानीयाच्च विचक्षणः ॥ ९१ ॥
अर्थ - अंगुष्टमूल अर्थात् तर्जनी ऊंगली धरनेके स्थलमं यदि नाडीकी गति प्रतीत नहो, केवल मध्यमा और अनामिका इन दो अंगुली से प्रप्तीतहोय तो उस रोगीकी अर्ध प्रहरके उपरांत मृत्यु होय ॥ ९१ ॥
सार्द्धद्वयालाद्वा यदि तिष्ठति नाडिका । प्रहरैकाद्वहिर्मृत्युं जानीयाच्च विचक्षणः ॥ ९२ ॥
अर्थ - नाडी मूलस्थानसें २॥ अंगुल अंतर अर्थात् यदि केवल अनामिकाके शेषार्द्ध मात्रमें फडके उसकी प्रहरउपरांत अर्थात् दूसरे प्रहर में मृत्युहोय ॥ ९२ ॥ पादाङ्गुलगता नाडी चञ्चला यदि गच्छति । त्रिभिस्तु दिवसैस्तस्य मृत्युरेव न संशयः ॥ ९३ ॥
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