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मेरी मेवाड़ यात्रा महाराज का हृदय द्रवीभूत हो उठा। उन्होंने, संघ से सिफारश की । संघने उदयपुर जाने की अनुमति दी। तार छूटे और हमने मेवाड़ के लिये प्रस्थान किया।
मारवाड से मेवाड़ में प्रवेश करने के चार मार्ग हैं । पीडवाडा होकर गोगुंदा जाने का, राणकपुर होते हुए भाणपुरा की नाल चढकर गोगुंदा जानेका, देसूरी या घाणेराव की नाल में होकर राजनगर जाने का और कोटड़ा की छावनी होते हुए, खेरवाडा होकर केशरियाजी जाने का मार्ग । पहले तीन रास्तों में केशरियाजी नहीं आते, किन्तु चौथे रास्ते की अपेक्षा मार्ग अच्छे हैं । छोटी छोटी घाटिया चढने की तकलीफ तो होती है, किन्तु एकन्दर में रास्ता अच्छा है। चौथे रास्ते से उदयपुर जाने में, रास्ते में केशरियाजी तो अवश्य आते हैं, किन्तु रास्ता लम्बा, महा भयङ्कर और अत्यन्त खतरनाक है। ऐसे ऐसे भीषण वन आते हैं, कि किस समय 'बाघजीभाई' या 'शेरसिंहजी' से समागम हो जाय, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। यह कहने की आवश्यक्ता नहीं है कि जंगल में मुजसे केवल चार-पाँच हाथ की दूरी पर ही, एक वाघजीभाई हमारी मण्डली के स्वागत के लिये विराजमान दिखाई दिये थे। किन्तु कौन जाने, पेट भरा हुआ था, या हमारा शरीर ही उन्हें पसन्द नहीं आया, चाहे जिस कारण से हो, हमें देखते ही वे पीठ दिखलाकर बिदा हो गये । नदी-नालों का भी कोई पार नहीं है । १५-१५ और १७-१७ माइल तक कहीं उतरने का ठिकाना नहीं। सिरोही स्टेट और मेवाड की सीमा के स्थान पर
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