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करना ।
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मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में
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चाहे जितना विशाल कार्य हमारे सामने पड़ा हो, फिर भी उस में का जितना अंश हो सके उतना पूरा कर ही डालना चाहिये । हमें मालूम था कि जहाँ संवेगी साधु का परिचय तक नहीं है, ऐसे क्षेत्रों में हमें विचरण करना है । जहाँ मन्दिरों के प्रति अत्यन्त घृणा और तिरस्कार प्रकट किया जाता है ऐसे क्षेत्रों में जाना है। चाहे जो हो, हमने अपने प्रवास में इन दोचरवातों की ओर खासतौर पर लक्ष्य रक्खा था ।
१ प्रत्येक ग्राम में व्याख्यान देना ।
२ चर्चा करने के लिये तयार होनेवालों के साथ चर्चा
३ श्रुति, युक्ति और अनुभूति ( अनुभव ) इन तीनों प्रकार से सामने वाले के दिल में सच्चा मार्ग उतारने का प्रयत्न करना ।
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४ जहाँ जहाँ मन्दिरों में असातना होती दीख पडे, तहाँ तहाँ उसे दूर करने एवं करवाने का प्रयत्न करना । ( इस कार्य में गृहस्थों का सहयोग अधिक उपयुक्त था ।) व्याख्यान तथा चर्चा प्रतिपादक शैली से ही करना ।
५ गृहस्थों और खासकर प्रत्येक जैन के लिये करने योग्य कर्त्तव्यों का निर्देश करनेवाली सादी तथा छोटी छोटी पुस्तकों का प्रचार करना ।
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