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मेरी मेवाड़यात्रा यह कहा कि-"धर्म जरा मी नहीं समझूगा, व्यवहार समझकर दूंगा"। मैंने पूछा, कि.-"व्यवहार में पुण्य समझते हो, या पाप ?” उसने का कि-"पाप"। मैंने कहा कि-"मैं गोचरी आकर आपको पाप में क्यों डालूँ ? ऐसा काम में क्यों करूँ ? और आप भी मुझको गोचरी देकर पाप में पड़ने को क्यों तयार हुए ?" वह हँसता रहा और उठकर चलता बना।
कहने का मतलब यह है, कि तेरहपन्थी लोग इस हद तक अधम विचार रखते हैं। दूसरे किसी भी साधु को भिक्षा देने में के पाप ही मानते हैं।
स्थानकवासी भाई जहाँ जहाँ हैं, वे साधारण रूप से मन्दिर की व्यवस्था रखते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि कुछ लोग तो दर्शन भी अवश्य करते हैं। मूर्तियों को तोड़ने अथवा भगवान् की गोद में पातरे रखकर असातना करने जैसी अधमता तो वे प्रायः नहीं करते हैं।
जैसा कि ऊपर कह चुके हैं, कि जिस तरह राशमी से तेरहपन्थियों की बस्ती आने लगी, उसी तरह मेवाड़ की हद छोड़ने पर पड़ावली से मन्दिरमार्गी आने लगे। पड़ावली, चारभुजा, झीलवाड़ा, मझेरा और केलवाड़ा आदि ग्रामों में थोड़े बहुत मन्दिरमार्गी अवश्य हैं और वहाँ मन्दिरों की व्यवस्था भी अच्छी है। फिर भी एक बात अवश्य ही आश्चर्य में डालने वाली है। इन मन्दिरमार्गियोंमूर्तिपूजकों से पूछा जाय, कि-'क्या तुम भगवान की पूजा करते हो ? तो उत्तर यह मिलेगा, कि-'हाँ, महीने में एक दो बार
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