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मेवाड - प्रवेश
११
बोए
हुए
बीजों से जो अंकुर निकले हैं, उन्हें यदि सिंचन करके बढाना हो, तो पधारिये और यदि सूखने देना हो तो जैसी आपकी इच्छा " ।
उदयपुर के युवकों की इस विनति में, ह्रदय की वेदना थी । इस विनति में, गुरुभक्ति थी । यह विनति, कोई व्यवहारिक विनति न थी। इसमें, धर्म की सच्ची लगन थी । दया, दान, मूर्तिपूजा, आदि अनादिसिद्ध, शास्त्रसम्मत, सिद्धान्तवादी श्रद्धालु जैनों पर होनेवाले आक्रमण से बचाने की यह पुकार थी। युवकों की इस विनति से, किस कठोर हृदयवाले साधु का हृदय न पिगलता । किन्तु, हमारे लिये धर्मसंकट था । 'पाटन' का वचन पक्का था । भला वचन भंग का पातक कैसे उठाया जा सकता था ? । और इधर इन युवक की मर्मभेदी विनति का भी कैसे तिरस्कार किया जा सकता था ! | ? इस तरह की उलझन में अभी कुछ ही दिन व्यतीत हुए थे, कि इतने ही में उदयपुर का दूसरा डेप्युटेशन आ पहुँचा। उनकी आवश्यकता का इसी से अन्दाज लग गया । उनकी आवश्यकताओं का अनुमान करने के लिए, अब अधिक प्रमाणों की जरूरत न थी । अब तो ऐसा जान पड़ने लगा, कि पाटन की अपेक्षा भी शायद सेवा के लिये यह क्षेत्र अधिक उपयुक्त है। फिर भी, वचनबद्धता का प्रश्न सामने आता ही था । उदयपुर के गृहस्थ पाटन गये । संघ से विनति की और अपनी दुःख कथा कह सुनाई । परमदयालु, सच्चे शासनप्रेमी, वयोवृद्ध प्रवर्तकजी श्री कान्तिविजयजी
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