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मेरी मेवाड़यात्रा
रखता; उस राज्य के साथ तो ओसवालों यानी जैनों का सम्बन्ध सैकड़ों वर्षों से बराबर चलता ही आया है। 'ओसवालोंका सम्बन्ध ' यानी 'जैनों का सम्बन्ध' यह कहने की तो शायद ही आवश्यकता रह जाय। क्यों कि, श्री रत्नप्रभसूरि महाराज ने, ओसियावासी क्षत्रियों को जब से जैनधर्म की दीक्षा प्रदान की, उस पश्चात से वे 'जैनधर्मी' के नाम से ही प्रसिद्ध होते आये हैं। यही नहीं, उन्होंने जैनधर्म की प्रभावना के लिये, समय समय पर अपनी शक्तियों का उपयोग भी अवश्य ही किया है।
मेवाड़ राज्य के साथ, जैनों का सम्बन्ध कब से प्रारम्भ हुआ, यह खोज निकालना ज़रा कठिन कार्य है। कारण, कि मेवाड़ के महाराणा हम्मीर से पहले का इतिहास लगभग अन्धकार में ही है। फिर भी, महाराणा हम्मीर से लगाकर, वर्तमान महाराणा श्री भोपालसिंहजी तक के महाराणाओं के राज्य में, आजतक लगमग पच्चीस दीवान औसवाल जाति के रह चुके हैं, जिनमें से बहुत से दीवानों ने तो जैनधर्म की पूर्व सेवा की है। मेहता जलसिंहजी, मेहता चील, भण्डारी वेला, कोठारी तोलाशाह, भीखमजी दोसी, भामाशाह, दयालशाह, और अभी पिछले पिछले समय में मेहताजी पन्नालालजी दीवान रह चुके हैं। मेहताजी पन्नालालजी के पश्चात्, कहा जाता है, कि कुछ समय तक, चाहे जिस कारण से हो, अजैन दीवान रहे हैं। किन्तु, अभी कुछ ही महीने पहले, ओसवाल जाति के भूषण सदृश श्रीमान्
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