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मेरी मेवाड़यात्रा अगम्य वाणी होने पर, दयालशाह की पुत्रवधूने इसका बीड़ा उठाया। उसके हाथ से नींव पडते ही पाल का कार्य चलने लगा। इसके बदले में दयालशाह की पुत्रवधूने उपर्युक्त मन्दिर बनाने की मंजूरी प्राप्त की थी।
इस किंवदन्ती में कितना सत्य है, यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि दयालशाह द्वारा की गई महाराणा राजसिंहजी की सेवा से प्रसन्न हो कर, महाराणाजी ने इस पहाड़ पर मन्दिर बनवाने की स्वीकृति प्रदान कर दी हो । ऐसा भी कहा जाता है, कि राजसागर की पाल बनवाने में राणाजी को एक करोड़ रुपया व्यय करना पड़ा था और दयालशाह का भी इस मन्दिर की रचना करवाने में एक करोड रुपया व्यय हुआ था।
'दयालशाह के किले के पास ही नवचौकी नामक स्थान है । इस नवचौकी की कारीगरी अत्यन्त मनोहर है। यह मानों आबू या देलवाड़े के मन्दिरों की कारीगरी का नमूना हो । इस नवचौकी में, मेवाड़के राजाओं की प्रशंसा करने वाला पच्चीस सर्ग का एक काव्य शिलालेख के रूप में खुदा हुआ है । इस प्रशस्ति में भी दयालशाह का नाम और उनकी वीरता का वर्णन मिलता है।
मन्दिर में जो मूर्तियाँ विराजमान हैं, उन सब पर एक ही प्रकार का लेख है। इस लेख को पढ़ने से विदित होता है, कि-- "संवत् १७३:२. की वैशाख शु०७ गुरुवार के दिन महाराणा
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