Book Title: Karmagrantha Part 3 Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur View full book textPage 6
________________ आ मुख जैन दर्शन के संपूर्ण चिन्तन, मनन और विवेचन का आधार आत्मा है । मात्मा सर्वतंत्र स्वतन्त्र शक्ति है। अपने सुख-दुःख का निर्माता भी वही है और उसका फल भोग करने वाला भी यही है। आत्मा स्वयं में से म विशुद्ध है, किन्तु वह शरीर के साथ मूर्तिमान बनकर अशुद्ध दशा में संसार में परिभ्रमण कर रहा है । स्वयं परम आनन्दस्वरूप होने पर भी सुख-दुःख के में पिस रहा है। अजर-अमर होकर भी जन्म-मृत्यु के प्रवाह में बह रहा है । है कि जो आत्मा परम शक्तिसम्पन्न है, वही दीन-हीन, दुख, बरित्र के रूप में संसार में यातना और कष्ट भी भोग रहा है। इसका कारण क्या है ? *ges जैन दर्शन इस कारण की विवेचना करते हुए कहता है- आत्मा को संसार में भटकाने वाला कर्म है। कर्म ही जन्म-मरण का मूल है कम् मरणस्स मुलं भगवान श्री महावीर का यह कथन अक्षरशः सत्य है, तथ्य है । कर्म के कारण ही यह विश्व विविध विचित्र घटना चक्रों में प्रतिपल परिवर्तित हो रहा है । ईश्वरवादी दर्शनों ने इस विश्ववैचित्य एवं सुख-दुःख का कारण जहाँ ईम्बर को माना है, वहां जैनदर्शन ने समस्त सुख-दुःख एवं विश्वविक्रम का कारण मूलतः जीव एवं उसका मुख्य सहायक कर्म माना है। कर्म स्वतंत्र रूप से कोई शक्ति नहीं है, वह स्वयं में पुद्गल है, जड़ है। किन्तु राग-द्वेषवश वर्ती आत्मा के द्वारा कर्म किये जाने पर वे इतने बलवान और शक्तिसम्पन्न बन जाते हैं कि कर्त्ता को भी अपने बन्धन में बाँध लेते हैं | मालिक को भी नौकर की तरह नचाते हैं । यह कर्म की बड़ी विचित्र शक्ति है । हमारे जीवन और जगत के समस्त परिवर्तनों का यह मुख्य बीज फर्म क्या है ? इसका स्वरूप क्या है ? इसके विधि परिणाम कैसे होते है ? यह बड़ा ही गम्भीर विषय है। *Page Navigation
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