Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 13
________________ अभिव्यक्ति करने की यथाशक्य कोशीश तो पूज्यश्री करते ही रहते थे । * अनुभूति कुछ भी न हो, लेकिन कई लोगों की अभिव्यक्ति इतनी धारदार होती है कि सुनने-पढने वाले इन पर मुग्ध हो जाते है। अच्छे-अच्छे शब्दों के पेकिंग में उधार माल (स्वयं को कुछ भी अनुभव नहीं है) बेचनेवाले बहुत होते है, लेकिन इस पुस्तक के उद्गाता पू. आचार्यश्री अनुभूति के स्वामी थे । हम तो कई बार कल्पना करते है कि पूज्यश्री की अनुभूति बहुत ही तीव्र थी, लेकिन जब तक उस अनुभूति का शास्त्राधार न मिले तब तक वे उसे व्यक्त नहीं करते होंगे । इसीलिए ही पूज्यश्री जो जो बात करते उन सभी में शास्त्र-पंक्तियां आधार के रूप में कहते ही थे । इस पुस्तक में आप यह देख सकते हैं। (२) दूसरी बात यह है कि एक बार पढकर इस ग्रन्थ को छोड़ न दें । यह ग्रन्थ एक बार पढने जैसा नहीं है, बार-बार आप पढेंगे तो ही पूज्यश्री की बातें आपके अंतःकरण में भावित बनेंगी । (३) एक व्यक्ति पढें और दूसरे सब सुने ऐसा भी आप कर सकते है । कई जगह पर ऐसा होता भी है । इस हिन्दी प्रकाशन के मुख्य प्रेरक पूज्यश्री के पट्टप्रभावक पू. गुरुदेव आचार्यश्री विजयकलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा., विद्वद्वर्य पू. पं. श्री कल्पतरुविजयजी, प्रवक्ता पू. पं. श्री कीर्तिचन्द्रविजयजी, पू. मुनिश्री कुमुदचन्द्रविजयजी आदि को हम आदरपूर्वक स्मृतिपथ में लाते हैं । पू. गणिश्री पूर्णचन्द्रविजयजी, गणिश्री तीर्थभद्रविजयजी, गणिश्री विमलप्रभविजयजी, मुनिश्री कीर्तिरत्नविजयजी, मुनिश्री हेमचन्द्रविजयजी, मुनिश्री आनंदवर्धनविजयजी, मुनिश्री तत्त्ववर्धनविजयजी, मुनिश्री अनंतयशविजयजी, मुनिश्री अमितयशविजयजी, मुनिश्री आत्मदर्शनविजयजी, मुनिश्री तत्त्वदर्शनविजयजी, मुनिश्री अजितशेखरविजयजी आदि को भी

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