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नहीं है। यह तो परम योगी की अमृत-वाणी की पुस्तक हैं।
(१) इसको पढने की सर्व प्रथम शर्त यह हैं कि स्व. पूज्य आचार्यश्री के प्रति हार्दिक बहुमान होना चाहिए : जिनकी चेतना ने परम चैतन्य (परमात्मा) के साथ अनुसंधान किया है ऐसे सिद्धयोगी पूज्य आचार्यश्री की दिव्य वाणी मैं पढ रहा हूं। मेरा कितना सौभाग्य है कि ऐसी वाणी पढने का मन हुआ ? प्रभु की कृपा के बिना इस काल में ऐसा साहित्य पढने का मन भी कहां होता है ?
_ अभी चार दिन पहले कर्मठ सेवाभावी कुमारपाल वी. शाह वर्षामेडी गांव में मिले । उन्होंने कहा : महाराजश्री ! आपने 'कहे कलापूर्णसूरि' पुस्तक प्रकाशित करके कमाल कर दिया है। मैं पढता हूं तब विचार आता है कि कहां अंडरलाइन करूं? पूरी पुस्तक ही अंडरलाइन करने लायक है । आपने सार ही सार अवतरित किया है ।
____एक व्यक्ति ने स्व. पूज्य आचार्यश्री का वासक्षेप लेते समय पालीताना में कहा था : मैंने कहे कलापूर्णसूरि किताब पांच बार पढी है और आगे भी मैं बार-बार पढना चाहता
बाबुभाई कडीवाले ने एक वक्त सभा में कहा था : 'हम कहे कलापूर्णसूरि ग्रन्थ का प्रतिदिन स्वाध्याय करते हैं।'
क यह सब हृदय के बहुमान को धोतित करनेवाले उद्गार है। ऐसा आदर अगर हो तो निश्चित ही आपके लिए इस पुस्तक का पठन कल्याणकर बनेगा ।
4 अगर आपको इतना आदर नहीं भी है, फिर भी आप जिज्ञासा से पढना चाहते है, तो भी पढें । हो सकता है कि पढते-पढते भी आपको आदर हो जाय ।
इस पुस्तक में शब्द-वैभव नहीं है, वाणी-विलास नहीं है, सीधे-सादे शब्दों में स्वयं की अनुभूति को अभिव्यक्त करने का प्रयास है ।
पूज्यश्री के पास अनुभूति बहुत ही तीव्र थी, लेकिन अनुभूति की अपेक्षा अभिव्यक्ति कमजोर थी, फिर भी