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प्रासंगिक इस ग्रन्थ का जन्म कैसे हुआ ?
वि. सं. २०५५ में पूज्यश्री का वांकी तीर्थ में चातुर्मास हुआ । पूज्यश्री की निश्रा में हम १०९ साधु-साध्वीजी थे ।
पूज्यश्री की दिव्य वाणी वहां अत्यंत स्फूर्ति से बहती थी । तीर्थ का शान्त वातावरण साधना आदि के लिए अनुकूल था । हम हर वक्त की तरह इस वक्त भी पूज्यश्री की वाणी का नोट बुक में अवतरण करते थे ।
म हमारी नोट का झेरोक्ष अन्यत्र भेजा गया तब सभी ने कहा : हम को भी यह चाहिए । ५० नकल कम पड़ी अतः हमने १०० नकल झेरोक्ष कराई, लेकिन इतनी नकल भी कम होने पर हमने मुद्रित कराने का निर्णय किया । ५०० नकल तो बहुत हो जायेगी - ऐसा हमने समझा । लेकिन किसीने कहा कि ५०० से १००० नकल मुद्रित कराओगे तो सुविधाजनक रहेगा, ५०० नकल महंगी पड़ेंगी ।।
हमने सोचा : १००० नकले छप तो जायेंगी, लेकिन पढेगा कौन ? लेगा कौन ?
लेकिन प्रकाशित होते ही वह पुस्तक (कहे कलापूर्णसूरि) इतनी तेजी से समाप्त हो गई कि हम आश्चर्य में पड़ गये । 2 अनेकानेक बड़े बड़े आचार्यों, साधकों, साध्वीजी आदि के अभिप्रायों का ऐसा बरसात बरसा कि हम स्तब्ध हो गये। सचमुच पूज्यश्री का ही यह प्रभाव था । फिर तो दूसरी आवृत्ति २००० नकल मुद्रित करानी पड़ी। आज वह भी अलभ्य प्रायः बन गई है। अब तीसरी आवृत्ति प्रकाशित होने की तैयारियां हो रही है।
__यह तो गुजराती आवृत्ति की बात है, लेकिन हिन्दीभाषी पाठकों का क्या ?
बहुत सारे लोगों की सूचना आई कि पूज्य आचार्यश्री अब केवल गुजरातीभाषीओं के ही नहीं है, सब के है। हम हिन्दीभाषीओं पर उपकार के लिए इसका हिन्दी-अनुवाद होना चाहिए । अनेक लोगों के अनुरोध से अब यह हिन्दी आवृत्ति