Book Title: Jyo tha Tyo Thaharaya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ ज्यों था त्यों ठहराया मंदिर, कि दिगंबर का इश्के बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं? अब मुश्किल खड़ी हुई कि मैं मसजिद जाऊं, कि मंदिर जाऊं! और फिर कितने मंदिर हैं, कितने मसजिद हैं! फिर मस्जिदों में भी झगड़े हैं; फिर मंदिरों में भी झगड़े हैं। फिर हिंदू के मंदिर जाऊं, कि जैन के मंदिर जाऊं, कि बुद्ध के मंदिर जाऊं? फिर जैनों के मंदिरों में भी झगड़े हैं--कि श्वेतांबर का मंदिर ? फिर दिगंबरों में भी झगड़े हैं-- कि बीसपंथी का मंदिर, कि तेरापंथी का मंदिर ! झगड़ों पर झगड़े हैं! फिर बात बिखरने लगी। दो हुई, कि फिर खिसलने लगे तुम। फिर बिगड़ती ही चली जाएगी बात। फिर इसका कोई अंत नहीं है बिगड़ाव का। फिर यह जो एक था -- अनंत होकर रहता है; अनेक हो कर बंट जाता है! मस्जिदों में कितने झगड़े हैं! मसजिद और मंदिर में ही झगड़े होते तो भी समझ लेते। मस्जिदों में झगड़े हैं। शिया और सुन्नियों में झगड़े हैं। एक दूसरे की गर्दन काटने को तैयार हैं! फुरसत कहां गर्दन काटने से कि खुदा की इबादत हो । गर्दन काटने में ही वक्त चला जाता है। और गर्दन किसकी काट रहे हो। काटने वाला भी वही है, और कटने वाला भी वही है ! हिंदू मारो, तो उसे मारते हो। मुसलमान को मारो, तो उसे मारते हो। मंदिर को जलाओ, तो उसे जलाते हो। मसजिद को जलाओ, तो उसे जलाते हो। इश्के बुतां करूं कि मैं यादे खुदा करूं? लेकिन भूल वहीं हो जाती है शुरू में, जहां दो कर लेते हो। दो मत करो। ज्यूं मुख एक देखि दुई दर्पन ! क्यों दो करते हो? जो रूप जाए । इश्के बुतां-- अगर मूर्तियां प्यारी लगती हों, तो हर्ज कुछ भी नहीं। अगर अमूर्त प्यारा लगता हो, तो हर्ज कुछ भी नहीं। किस बहाने अपने घर लौट आते हो, बहाने का कोई सवाल नहीं । बैलगाड़ी में आते हो, कि पैदल आते हो, कि हवाई जहाज से आते हो, कि रेलगाड़ी में आते हो--घर आ जाओ। मगर लोग झगड़ रहे हैं ! बैलगाड़ी भी नहीं चलती; रेलगाड़ी भी नहीं चलती। झगड़े से निपटें, तब तो चले। झगड़े इतने खड़े हो जाते हैं कि कुछ चलता ही नहीं। सब अटके हैं। झगड़े में जो पड़ा, वह अटक जाएगा। कोई गीता में अटका है, कोई कुरान में अटका है। जो नावें बन सकती थीं, वे अटकाव बना लिए हैं हमने । कैसी मूढता है ! धार्मिकता तो एक है; धर्म अनेक हैं। इसलिए धर्म गलत हैं; धार्मिकता सच है। और धार्मिक व्यक्ति न हिंदू होता, न मुसलमान होता । धार्मिक व्यक्ति को मसजिद में बिठा दो, तो भी साक्षी होता है; और मंदिर में बिठा दो, तो भी साक्षी होता है। अब इससे क्या फर्क पड़ता है--कहां साक्षी हुए! दीवालें हिंदुओं ने खड़ी की थीं कि मुसलमानों ने! क्या फर्क पड़ता है! मैं एक गांव में मेहमान था। मेरे सामने ही एक मंदिर बन रहा था जिस घर में मैं मेहमान मंदिर को बना रहे थे, जो कारीगर मंदिर मुझे उनकी बातचीत से लगा कि वे पूछताछ की तो पता चला कि हां, वे थे, था उसके सामने ही मंदिर बन रहा था। जो राज के पत्थर तोड़ रहे थे, मूर्तियां निर्मित कर रहे मुसलमान मालूम होते हैं। तो मैंने जानकारी की, मुसलमान हैं। Page 14 of 255 http://www.oshoworld.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 255