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तीर्थङ्करोंके पाँच कल्याणकमें आना-जाना, उसकी रक्षा करनेवाले देवता, 'कल्पोपपन्न' कहलाते हैं. उक्त आचारके पालन करनेका अधिकार जिन्हें नहीं हैं, वे देव, 'कल्पातीत' कहलाते हैं. कल्पोपपन्न देवताओंके बारह देवलोक हैं. इसलिये स्थानके भेद से उन देवोंके भी बारह भेद समझना चाहिये. बारह देव लोक ये हैं; -१ सौधर्म, २ ईशान, ३ सनकुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्म, ६ लान्तक, ७ शुक्र, ८ सहस्रार, ९ आनत, १० प्राणत, ११ आरण, और १२ अच्युत. कल्पातीत देवोंके चौदह भेद हैं; नवयैवेयक में रहनेवाले तथा पाँच अनुत्तरविमान में रहनेवाले. नवग्रैवेयकों के नाम ये हैं:- १ सुदर्शन, २ सुप्रबुद्ध, ३ मनोरम, ४ सर्वतोभद्र, ५ विशाल, ६ सुमनस, ७ सौमनस, ८ प्रियङ्कर, और ९ नन्दिकर. पाँच अनुत्तरविमानोंके नाम ये हैं: -१ विजय, २ वैजयन्त, ३ जयन्त, ४ अपराजित, और ५ सर्वार्थसिद्ध. अन उक्त देवोंके स्थान - रहने की जगह -संक्षेपमें कहते हैं। मेरु पर्वतके मूलमें समभूतल पृथ्वी हैं, उससे नीचे रलप्रभा नामक प्रथम नरकका दल एक लाख अस्सी हजार योजन मोटा है, उसमें तेरह प्रतर हैं, उन प्रतरोंमें बारह आन्तर-स्थान हैं, प्रथम और अन्तिम आन्तर-स्थानोंको छोड़कर बाकीके दस आन्तर-स्थानोंमें, हर एकमें, एक एक भवनपति देवोंके निकाय रहते हैं प्रत्येक निकाय में दक्षिणकी तरफ एक, और उत्तरकी तरफ एक ऐसे दो इन्द्र होते हैं, इस तरह दस निकायोंके बीस इन्द्र हुए.
पहले कहा गया है कि रत्नप्रभाका दल एक लाख अस्सी हजार योजन मोटा है, ऊपर एक हजार और नीचे एक हजार योजन पृथ्वीको छोड़कर वाकीके एक लाख अठहत्तर हजार योजनमें पूर्वोक्त तेरह प्रतर हैं, जिनमें कि दस