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निरंजणं निकल अयल, देवअणाइ अणड़ अनंतं । चेयणलरकण सिद्धसम, परमप्पासिवसंतं ॥ ५ ॥
अर्थ-कर्म अंजनथी रहित निरंजन धुं कलंकरहित छु अयल केहतां पोताना स्वरूपथी किवारे चलायमान थाउ नही परमदेव कुं जेनी आदि नथी तथा जेनो अंत नथी चेतना लक्षण हुं सिद्ध समान धुं संतसत्ता मयी छु. जीवादिसद्दहणं, सम्मतं एस अधिगमो नाणं । तत्थेव सया रमणं, चरणं एसो हु मुरकपहो ॥ ६ ॥ अर्थ - जीवादिकछद्र व सेवा सहा ते समकित अने छ द्रव्य जेवा छे तेहवा गुणपर्यायसहित जाणे ते ज्ञान जाणवुं ते छ द्रव्य जाणीने अजीवने छांडे अने जीवना स्वगुणमां स्थिर थयीने रमे ते चारित्र कहियें ए ज्ञानदर्शन चारित्र शुद्धरत्नत्रयी ते मोक्षनो मार्ग छे माटे ए ज्ञानदर्शन चारित्रनो घणो यज्ञ करवो ए रक्षत्रयी पामीने प्रमाद करवो नही तिहां निश्चय व्यवहारनी गाथा.
निच्छय मग्गो मुरको, ववहारो पुन्नकारणो बुत्तो । पढमो संवररूवो, आसवहेउ तओ बीओ ॥७॥
अर्थ - निचे नयनो मार्ग ज्ञान सत्तारूप ते मोक्षनुं कारण छे एटले मोक्ष छे अने व्यवहार क्रिया नय ते पुण्यनुं कारण कह्यो पहेलो निश्चयनय संवर छे अने निश्चयसंवर निश्चे नय ते एकज छे जूदा नथी बीजो व्यवहार नय ते आश्रव नवा कर्म लेवानो हेतु छे एटले शुभ पुण्यकर्मनो आश्रव थाय छे अने अशुभ व्यवहारें अशुभ कर्मनो आश्रव थाय छे कोई पूछे जे व्यवहार नय आश्रवनुं कारण हे तो अमे व्यवहार नही आदरसुं एक निश्च मार्ग आदरसुं तेने उत्तर कहे छे.