Book Title: Jivvicharadiprakaransangrah
Author(s): Jindattsuri Gyanbhandar Surat
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 271
________________ वात् स द्विविधः विभजन, १ प्रवृत्ति, २ भेदात् । प्रवृत्तिव्यवहारस्त्रिविधः वस्तुप्रवृत्तिः १ साधनप्रवृत्तिः २ लौकिकप्रवृत्तिश्च ३ साधनप्रवृत्तिस्त्रेधा लोकोत्तर, लोकिका, २ कुप्रावचनिक, ३ भेदात् इति व्यवहारनयः श्रीविशेषावश्यके || अर्थ - हवे व्यवहारनयनी व्याख्या करे हे संग्रहनयें गृहीत जे वस्तु तेने भेदांतरे विभजन के० बहेंच ते व्यवहारनय जेम द्रव्य एवं सामान्य नाम कह्युं तेमां वली वेंचण करिये जे द्रव्यना वे भेद छे. १ जीव द्रव्य, २ अजीव द्रव्य, वली तेमां पण बेहेंचण करियें जे जीवना वे भेद १ सिद्ध बीजा संसारी एम वेंहेषण करवी ते सर्व व्यवहारनयनो स्वभाव जाणवो अथवा व्यवहरण के० प्रवर्त्तन ते व्यवहारनय तेना के भेद छे. १ शुद्ध व्यवहार, २ अशुद्ध व्यवहार, वली शुद्ध व्यवहारना वे भेद छे. १ सर्व द्रव्यनी स्वरूपरूप शुद्धप्रवृत्ति जेम धर्मास्तिकायनी चलणसहायता तथा अधर्मास्तिकायनी स्थिरसहायता तथा जीवनी ज्ञायकता इत्यादिकने वस्तुगत शुद्ध व्यवहार कहियें, २ द्रव्यनो उत्सर्ग निपजवा माटे रत्नत्रयी शुद्धता गुणस्थाने श्रेणी आरोहणरूप ते साधनशुद्ध व्यवहार कहियें. वली अशुद्ध व्यवहारना वे भेद छे. १ सद्भूत, २ असद्भूत तेमां जे क्षेत्रे अवस्थाने अभेदें रह्या जे ज्ञानादि गुण तेने परस्पर भेदें कद्देवा ते सद्भूतव्यवहार. तथा जेम क्रोधी हुं मानी हूं अथवा देवता हुं मनुष्य हुं इत्यादि देवतापणो ते हेतुपणे परिणमतां ग्रह्मा जे देवगतिवि

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