Book Title: Jivvicharadiprakaransangrah
Author(s): Jindattsuri Gyanbhandar Surat
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 269
________________ क्रमा १॥ १ सामान्यपणे वहॅचण विना ग्रहण थाय एवो जे उपयोग अथवा एवं वचन अथवा एवो धर्म को इपण वस्तुने विशे मूळ होय तेने संगृहीत संग्रह कहिये. २ अने एकजाति माटे एकपणी मानिने ते एकमभ्यं सवनी ग्रहण थाय जेम “एगे आया" "एगे पुग्गले" इत्यादि | वस्तु अनंति छ पण जाति एक माटे ग्रहवाय छे ते बीजो पिंडित संग्रह कहिये. ३ जे अनेक जीवरूप अनेक व्यक्ति छे ते सर्वमा पामियें जेम सचित्मयो आत्मा एटले सर्वजीव तथा सर्वप्रदेश सर्वगुण ते जीवनां लक्षण छे एने अनुगम संग्रह कहिये. तथा जेने ना कहेवे तेथी इतरनो सर्व संग्रहपणे ज्ञान थाय ते जेम अजीव छे वारे जे जीव नही ते अजीव कहिये एटले कोइक जीव छे एम व्यतिरेक वचने टेयों तथा उपयोग जीवनो ग्रहण थाय ते व्यतिरेक संग्रह कहिये. ___ अथवा संग्रहनय वे भेदें कहेवाय छे. १ महासत्तारूप, २ अवांतरसत्तारूप ए रीते पण संग्रहनो स्वरूप कह्यो छे. ki “सदिति भणियम्मि जम्हा, सवत्थाणुप्पवत्तए बुद्धी | तो सधं सत्तमत्तं नस्थि तदत्थंतर किंचि ॥१॥” यद्यस्मात् सदि त्येवं भणिते सर्वत्र भुवनत्रयांतर्गतवस्तुनि बुद्धिरनुप्रवर्तते प्रधावति नहिं तत् किमपि वस्तु अस्ति यत् सदित्युक्ते झगिति बुद्धौ न प्रतिभासते तस्मात् सर्व सत्तामात्रं न पुनः अर्थातरं तत् श्रुतसामर्थ्यात् यत् संग्रहेण संगृह्यते तेन परिणमनरूप त्वादेव संग्रहस्येति" एटले त्रणे भुवनमां एहयी वस्तु कोइ नथी जे संग्रहह्नयने ग्रहणमा आवती नथी जेजे वस्तु छे ते सर्व Mi संग्रहनयमां ग्रहवाणी ज छे ए संग्रहनय कह्यो. ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305