Book Title: Jivvicharadiprakaransangrah
Author(s): Jindattsuri Gyanbhandar Surat
Publisher: Jindattsuri Gyanbhandar

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Page 285
________________ जे अवांतर सामान्यने मानतो अने जीवने विषे प्रति जीवनो विशेष भेद भव्य अभव्य सम्यक्त्वी मिथ्यात्वी नरनारकादि जे भेद तेने गजनिमीलिका के० मस्ताइये न गवेषवो ते अपरसंग्रह कहिये अने द्रव्यने सामान्यपणे माने पण स्वद्रव्यनी परिणामिकतादिक धर्मने न माने ने अपरसंग्रहाभास कहियें ए संग्रहनयर्नु स्वरूप कबुं. सङ्ग्रहेण च गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः, यथा यत् सत् तत् द्रव्यं पर्यायश्चेत्यादिः यः पुनरपरमार्थिकं द्रव्यपर्यायप्रविभागमभिप्रेति स व्यवहाराभासः चार्वाकदर्शनमिति व्यवहारदुर्नयः ।। | अर्थ हवे व्यवहारनय कहे छ संग्रहह्नये ग्रह्या जे वस्तुना तत्त्वादिक धर्म तेनेज गुणभेदें बेहेंचे भिन्नभिन्न गवेषे । तथा पदार्थनी गुणप्रवृत्ति तेनेज मुख्यपणे गवेषे ते व्यवहारनय कहिये जेम द्रव्य छे तेना जीव पुद्गलादिक पर्यायना* क्रमभावी तथा सहभावी ए रीतें बे भेद छे तेमां बली जीव बे प्रकारे २ सिद्धना, २ संसारी तेमज पुद्गलना वे भेद परमाणु तथा खंध इत्यादिक कार्यभेर्दै भिन्न माने तथा क्रमभावी पर्यायना वे भेद एक क्रियारूप बीजो अक्रियारूप इम वेहेंचण जे सामर्थ्यादिक गुणभेदें पड़े ते सर्व व्यवहारनय जाणको अने जे परमार्थ बिना द्रव्यपर्यायनो विभाग, करे ते व्यवहाराभास जाणवो. जे कल्पना करी भेदें बेचे ते चार्याकमत प्रमुख ए व्यवहारनयनो दुनय छे जेम चार्वाक प्रमाणपणे छतो जीवपणो

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