Book Title: Jain Shiddhanta Pathmala
Author(s): Saubhagyachandra
Publisher: Ajaramar Jain Vidyashala
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जैन सिद्धांत पाठमाळा. माणे देयणिज्ज आउयं नाम गोतं च एए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ ॥७२॥
अथ यावदायुः पालयित्वाऽन्तर्मुहूर्ताद्धावशेषायुप्क:(सन्)योगनिरोधं करिष्यमाणः सूदमक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायन तत्प्रथमतया मनोयोगनिरुणद्धि मनोयोगनिरुध्य)वागयोगं निरुणद्धि काययोगनिरुणध्यन्न पाननिरोधं करोति।(कृत्वा)पंचस्वाक्षरोच्चाराद्धायां चानगारः समुच्छिन्नक्रियमनिवृत्तिशुक्लध्यानं ध्यायवेदनीयमायुर्नाम गोत्रं. चेतान् चतुरः कर्माशान् युगपत्क्षप यति ॥७२॥ __तो अोरालियतेयकम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहि विप्पजहिता उज्जुसेविपत्ते अफुसमाणगई उर्दू पगसमएणं अविम्गहेणं तत्थ गन्ता सागरोवउत्ते सिज्मइ बुझ जाव अन्त करेह ॥७३॥ ___तत औदारिक तेन:कर्माणि सर्वामिविप्रहाणिभिस्त्यक्त्वा ऋजु, श्रेणि प्राप्तोऽस्पर्शगतिरुव॑मेकसमयेनाविग्रहेण तत्र गत्वा. साकारोपयुक्तः सिध्यति, बुध्यते यावदन्त करोति ॥७३॥
एस खलु सम्मत्तपरकमस्स अज्मयणस्स अट्टे समणेणं भगवया महावीरेण श्राधविए पनविए परूविए सिए उवदंसिए ॥७॥
एष खलु सम्यक्त्वपराक्रमस्याध्ययनस्यार्थः श्रमणेन भगवता महावीरेणाख्यातः प्ररूपितो दर्शित उपदर्शितः।।७४।
॥ति बेमि ॥ इति सम्मत्त परकमे समत्ते ॥२६ ॥इति ब्रवीमि ॥ इतिसम्यक्त्वपराक्रमः समाप्तः ॥२९॥

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