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१४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
और उसमें जो त्रुटि थी उसे बारह वर्षके उस घोर तपश्चरणके द्वारा पूरा किया जिसका अभी उल्लेख किया जा चुका है।
इसके बाद सब प्रकारसे शक्तिसम्पन्न होकर महावीरने लोकोद्धारका सिंहनाद किया--लोकमें प्रचलित सभी अन्याय-अत्याचारों, कुविचारों तथा दुराचा के विरुद्ध आवाज उठाई--और अपना प्रभाव सबसे पहले ब्राह्मण विद्वानों पर डाला, जो उस वक्त देशके 'सर्वे सर्वाः' बने हुए थे और जिनके सुधरने पर देशका सुधरना बहुत कुछ सुखसाध्य हो सकता था। आपके इस पटु सिंहनादको सुनकर, जो एकान्तका निरसन करने वाले स्याद्वादकी विचार-पद्धतिको लिए हुये था, लोगोंका तत्त्वज्ञानविषयक भ्रम दूर हुमा, उन्हें अपनी भूलें मालूम पड़ी, धर्मअधर्मके यथार्थ स्वरूपका परिचय मिला, मात्मा-अनात्माका भेद स्पष्ट हुमा
और बन्ध-मोक्षका सारा रहस्य जान पड़ा । साथ ही, झूठे देवी-देवतानों तथा हिंसक यज्ञादिकों परसे उनकी श्रद्धा हटी और उन्हें यह बात साफ़, जंच गई कि हमारा उत्थान और पतन हमारे ही हाथमें है, उसके लिये किसी गुप्त शक्तिकी कल्पना करके उसीके भरोसे बैठ रहना अथवा उसको दोष देना अनुचित और मिथ्या है । इसके सिवाय, जातिभेदकी कट्टरता मिटी, उदारता प्रकटी, लोगोंके हृदयमें साम्यवादकी भावनाएँ दृढ हुई और उन्हें अपने प्रात्मोत्कर्षका मार्ग सूझ पड़ा । साथ ही, ब्राह्मण गुरुपोंका आसन डोल गया, उनमेंसे इन्द्रभूति-गौतम जैसे कितने ही दिग्गज विद्वानोंने भगवान्के प्रभावसे प्रभावित होकर उनकी समीचीन धर्मदेशनाको स्वीकार किया और वे सब प्रकारसे उनके पूरे अनुयायी बन गये । भगवान्ने उन्हें 'गणधर' के पद पर नियुक्त किया और अपने संबका भार सौंपा। उनके साथ उनका बहुत बड़ा शिष्यसमुदाय तथा दूसरे ब्राह्मण और अन्य धर्मानुयायी भी जैनधर्ममें दीक्षित होगये । इस भारी विजयमे क्षत्रिय गुरुत्रों और जैनधर्मकी प्रभाव-वृद्धिके साथ साय तत्कालीन ( क्रियाकाण्डी ) ब्राह्मणधर्मकी प्रभा क्षीण हुई, ग्राह्मणोंकी शक्ति घटी, उनके अत्याचारों में रोक हुई, यज्ञ-यागादिक कर्म मन्द पड़ गये--उनमें पशुपोंके प्रतिनिधियों की भी कल्पना होने लगी और ब्राह्मणोंके लौकिक स्वार्थ तथा जाति-पांतिके भेदको वहुत बड़ा धक्का पहुंचा। परन्तु निरंकुशताके कारण उनका पतन जिस तेजीसे हो रहा था वह रुक गया और उन्हें सोचने-विचारनेका अथवा अपने धर्म तथा