________________
पूर्वपीठिका: ११
जिनसेन ने महापुराण में तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों को देखते हुए ब्राह्मण देवी-देवताओं व कर्मकाण्डों का जैनीकरण भी किया है जिसके फलस्वरूप वर्णव्यवस्था और १६ संस्कारों का उल्लेख हुआ । इसमें प्रकृति चित्रण के साथ-साथ शृंगार, शान्त, वीर, करुण एवं रौद्र जैसे विभिन्न रसों, अलंकारों, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, परिसंख्या अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग तथा व्यतिरेक आदि का पर्याप्त उपयोग किया गया है । ७
रामायण और महाभारत विषयक प्रारंभिक जैन ( पउमचरिय, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण ) रचनाओं के बाद त्रिषष्टिशलाका पुरुषों के चरित्र से सम्बन्धित महापुराणों की रचना का क्रम आरम्भ हुआ ! त्रिषष्टिशलाका पुरुषों का उल्लेख विभिन्न जैन आगमों तथा अन्य ग्रन्थों जैसे समवायांगसूत्र, ज्ञातधर्मकथा, कल्पसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, त्रिलोकप्रज्ञप्ति आवश्यक नियुक्तिचूर्ण, विशेषावश्यक भाष्य एवं वसुदेवहिण्डी में मिलता है। इसमें इन्हें उत्तमपुरुष कहा गया है और इनकी संख्या२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ नारायण, ९ बलदेव को मिलाकर केवल ५४ ही बतायी गयी है । किन्तु जिनसेन व गुणभद्र ने महापुराण में. ९ प्रतिनारायण को भी सम्मिलित करके ६३ शलाकापुरुषों का उल्लेख किया है । " आगे चलकर इसी महापुराण के आधार पर पुराणसारसंग्रह, चतुर्विंशतिजिनेन्द्रचरित्र, त्रिषष्टिस्मृति, तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र जैसे ग्रन्थो की रचना की गयी । १९
आदिपुराण में मुख्य रूप से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव एवं उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती के चरित का ही विस्तारपूर्वक वर्णन हुआ है । उत्तरपुराण में अजितनाथ को आदि लेकर २३ तीर्थंकरों, सगर को आदि लेकर ११ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण तथा उनके काल में होने वाले अन्य विशिष्ट पुरुषों के चरित वर्णित हैं । तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जिनसेन व गुणभद्र ने ब्राह्मण परम्परा में लोकप्रिय राम, कृष्ण, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, सूर्य, इन्द्र २० जैसे देवों तथा श्री, बुद्धि, सरस्वती, गंगा व सिन्धु जैसी देवियों" को महापुराण में स्थान देकर धार्मिक समन्वय का भाव दरशाया है। आदिपुराण के विषयवस्तु की व्यापकता को दृष्टि में रखते हुए पन्नालाल जैन का कथन है कि जो अन्यत्र ग्रन्थों में प्रतिपादित है वह इसमें भी प्रति - पादित है और जो इसमें प्रतिपादित नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी प्रति - पादित नहीं है । २२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org