Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 17
________________ ' प्रमङ्ग दुमरा मरुदेवी माता की मुक्ति श्रीमरुदेवीमाताने बाह्यरूप से न तो कोई त्याग किया और न कोई तपस्या ही की । तपस्या क्या ? साधु का बाना मी नहीं लिया, फिर भी आन्तरिक शुद्धि से हाथी के होदे पर बैठी-बैठी ही सिद्धू बन गई । ऋषभदेव भगवान ने एक हजार वर्ष तपस्या करके केवल ज्ञान प्राप्त किया। इधर माताजी पुत्र विरह से बहुत व्याकुल हो रही थी, कारण उन्हें इनका कोई समाचार नहीं मिला था । दादीजी के दर्शनार्थ एक दिन चक्रवर्ती भारत आए और उदासीनता का कारण पूछा। गद् गद् स्वर से दादी ने कहा- बेटा 1 तुझे क्या फिक्र है, हमारा चाहे कुछ भी हो। तू तो चक्रवर्ती के पद में फूल रहा है और राज्य के आनन्द मे मग्न हो रहा है । मेरा इकलौता पुत्र जो घर से निकल कर साधु बना था, उसे एक हजार वर्ष हो गए। क्या तूने कभी उसका पता लिया है ? वह कहां रहता है ? क्या खाता है ? सर्दी, गर्मी और बरसात से उसे कौन बचाता है ? मै उसे पास बिठा कर अपने हाथों से खिलाती — पिलाती थी, एवं हर तरह से उसकी रक्षा करती थी । अत्र वह मेरा बेटा भूखा प्यासा कहीं जगलों मे भटकता होगा, कौन पूछे उसका सुख और कौन करे उसकी सम्भाल । वे परम आनन्द में हैं दादीजी ! आपके पुत्र सर्वज्ञ भगवान् बन गये हैं और वे परम

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