Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 99
________________ ८७ प्रसङ्ग इक्कीसवां आँखें खुल गई कुम्हारकी इस अद्भुत युक्तिसे प्रियदर्शनाकी अांखें खुल गई और अज्ञान एवं मोहवश की हुई अपनी भूलका पश्चात्ताप करती हुई जमालिको छोड़कर भगवान के चरणों में आ गई। एक चार जमालि चम्पानगरीमें भगवान्के समवसरणमें आकर कहने लगा कि मैं केवलज्ञानी -होकर निकला हूँ इसलिए मेरा सिद्धान्त सच्चा है । गौतमस्वामीने कहा- अगर तू केवलज्ञानी है, तो बता-यह संसार और जीव शाश्वत हैं या अशाश्वत १ जमालि उत्तर नहीं दे सका, तव प्रभुने फरमाया- कि मेरे कई छद्मस्थ शिष्य इस प्रश्नका उत्तर दे सकते हैं। तू कहता है, मैं केवली ह तो फिर चुप क्यों खड़ा है ? फिर भी चुप ही रहा, तब भगवान् चोले-सुन । द्रव्योंकी अपेक्षासे संसार और जीव शाश्वत है तथा पर्यायकी अपेक्षासे अशाश्वत हैं। हठ नहीं छोड़ा जमालि शर्मिंदा होकर चुपचाप चला गया, किन्तु वह असिमानवश अपना दुराग्रह नहीं छोड़ सका और असत्य-प्ररूपणा करके दुनियांको बहकाता ही रहा । उसने सम्यक्त्वरत्न खो दिया एवं अन्तमे त्याग-तपस्याके बलसे मरकर छठे स्वर्गमे किल्विपी-हीनजातिका देवता बना। वहांसे च्यव कर संसार में भ्रमण करेगा और अन्तमे कर्मोका नाश करके मोक्ष पाएगा। कारण, एक वार सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो गई थी।

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