Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

View full book text
Previous | Next

Page 102
________________ Py ६० जैन जीवन प्रभव चोर पति-पत्नियोंकी चर्चा चल ही रही थी कि प्रभावादि पांच सौ चोर वहां आए और अपार धनराशिकी 'गठड़ियां वांधकर ले जाने लगे । देवशक्तिसे प्रभवके सिवा सारे ही चोर स्तब्ध हो गए । आश्चर्यचकित प्रभव इधर-उधर देखने लगा, तो ऊपरसे कुछ आवाज़ आई तथा दीपकका प्रकाश भी नज़र चढ़ा । चुपकेसे ऊपर जाकर ज्योंही कुछ चर्चा सुनी, फिर तो रुक ही न सका एव प्रकट होकर कहने लगा- अरे जम्बू ! क्या इन दिव्यभोगोंको तथा इन अप्सराओंको छोड़ना योग्य है । क्या वृद्ध मातापिताओं को रुलाना शोमा देता है ? नहीं, नहीं, तेरे जैसे विवेकीके लिए कदापि नहीं ! जम्बुका जबाब अरे प्रभव ! तू मुझे क्या समझाने आया है? सुधर्मगुरुने मेरी आखें खोल दीं और अब मैं समझ गया कि विषयसुख अपार दुःखोंसे घिरी हुई एक शहदकी बून्द है, इन स राओंका और माता-पिताओं का प्रेम अनन्त-मुक्ति सुखोंको रोकनेवाला है एवं तू जिस धनके लिए भटक रहा है वह भी यहीं रह जानेवाला है । प्यारे प्रभव ! त्याग दे इस संसार की मायाको ! बस, बातों ही बातोंमे सूर्य उदय हो गया और चोर नायक प्रभव भी उनके साथ दीक्षा के लिए तैयार हो गया ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117