Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

View full book text
Previous | Next

Page 109
________________ प्रसङ्ग पच्चीसवां एक झोंपड़ी बची कह तो हर एक देते हैं कि क्षमा करनी चाहिए, किन्तु अपना अपमान देखकर किसको क्रोध नहीं आता ? स्वार्थभंग होने पर किसकी आँखें लाल नहीं होतीं ? इसी लिए तो कहा गया है क्षमा वीरस्य भूषण धन्य है राजर्षि उदायनको जिन्होंने शान्तभावों से प्राणोंकी बलि चढ़ा दी, लेकिन हत्यारेके प्रति क्रोधको चमकने - तक नहीं दिया । 1 भगवान्का पदार्पण एकदा भगवान् महावीर सात सौ कोसका बिहार करके महाराज उदायनको तारनेके लिए वीतभय- पत्तन पधारे । प्रभुकी सुधावर्षिणी देशना सुनकर चरमशरीरी उदायननरेश संयम लेने को तैयार हो गए। राज्यका अधिकारी यद्यपि उनका प्रियपुत्र श्रमीचकुमार ही था, किन्तु मेरा पुत्र राज्यमें गृद्ध बनकर कहीं नरकगामी न बन जाए, ऐसे सोचकर उन्होंने अपना राज्य पुत्रको नहीं दिया । भानजेको राज्य केशीकुमार नामक भानजेको राज्य देकर महाराज साधु वन गए, योग्यता प्राप्त करके प्रभुकी आज्ञासे वे एकाकी विचरने लगे । एवं मास-मासखमरण की घोरतपस्या करने लगे । तपस्या के कारण उनका शरीर रूखा-सूखा एवं रुग्ण हो गया । ग्रामों

Loading...

Page Navigation
1 ... 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117