Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 104
________________ प्रसङ्ग तेईसवां पतन और उत्थान प्रसन्नचन्द्र - राजर्षि " किसी अनुभवीने ठीक ही कहा है, मन एव मनुष्याणा, कारण चन्धमोक्षयो' बांधनेवाला एवं खोलनेवाला यह मन ही है । स्वर्गेकी दिव्यलीला एव नरकोंकी घोर पीड़ा देनेवाला भी यह मन ही है । आप पढ़कर आश्चर्य करेगे कि प्रसन्नचन्द्र राजर्पिने मन हीसे सातवीं नरककी तैयारी कर ली और थोड़े ही क्षणों में उसी मनके सहारे केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । 1 पोतनपुरपति महाराज प्रसन्नचन्द्र भगवान् महावीर की वाणी सुनकर वैराग्यमें इतने भींग गये कि एक क्षण भी घर में रहना उनके लिए मुश्किल हो गया अतः बहुत छोटेसे राजकुमारको राज्य देकर मन्त्रि मण्डलको कार्य भार सौंप दिया और स्वयं साधु बनकर प्रभु के साथ विचरने लगे एव घोरतपस्या करने लगे । दुमु ख दूत 「 एक वार महावीर प्रभु राजगृह पधारे। राजर्षि वहां श्राज्ञा लेकर दोनों हाथ ऊँचे करके वनमे एक वृक्षके नीचे ध्यान करने लगे । राजा श्रेणिक वढी धूम-धाम से भगवान के दर्शनार्थ जा रहे थे । उनके दुर्मुख नामके दूतने ध्यानस्थ - मुनिको अपमान - सूचक शब्दोंमे कहा - धिक्कार है तुझे और धिक्कार है इस तेरे साधुपनको ! जो तेरे जीते-जी तेरा राज्य खतरेमे जा रहा

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