Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 83
________________ ★ प्रसङ्ग अठारहवां तो मैं इनका शिष्य बन जाऊँ । ७१ दद द सर्वज्ञ प्रभुने गम्भीर स्वरसे शीघ्र ही ददद इस वेद - मन्त्रका उच्चारण किया और कहा - इंन्द्रभूति । तुम्हारे दिल में जीव है या नहीं ? यह शंका है, किन्तु तुम्हारा यह वेदमन्त्र ही जीवकी सिद्धि करता है । देखो इसमें एक द का अर्थ है दान | दूसरे द का अर्थ है दया तथा तीसरे द का अर्थ है दमन । अब सोचो। दान, दया और इन्द्रियदमन जीव करता है या जड़ पदार्थ ? समाधान और दीक्षा बस, इन्द्रभूतिजीका जीव - विषयक सन्देह मिट गया एवं वे उसी वक्त पॉच - सौ शिष्यों सहित प्रभुके पास साधु बन गए । पता पाकर अग्निभूति आदि विद्वान अपने-अपने शिष्योंके परिवारसे आते गए और शंकाओंका समाधान करके संयम लेते गये । एक ही दिनमे चवालीससौ ग्यारह दीक्षाएँ हो गई । जो ग्यारह पण्डित थे वे ग्यारह गणधर कहलाए। उनके नाम इस प्रकार थे १. इन्द्रभूति २. अग्निभूति ३. वायुभूति ४. व्यक्त ५. सुधर्म ६. मण्डितपुत्र ७. मौर्यपुत्रं = अकम्पित ६. अचल भ्राता १०. मेतार्य ११. प्रभास t उपदेश प्रभुने उत्पात, व्यय और धौव्य-इन तीन पदोंका उपदेश

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