Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 94
________________ जैन-जीवन 1 साधुओं को सूचना कर दी कि क्रुद्ध गोशालक आ रहा है, इस समय उससे कोई धर्मचर्चा न करें । =२ 1 दो मुनि भस्म वस, इतने ही में अपने शिष्यों सहित गोशालक वहाँ आ गया और क्रोध के आवेश में कहने लगा- महावीर | मै तुम्हारा F शिष्य जो गोशालक था, उसके शरीर मे निवास करनेवाला कौडिन्यायन गोत्रीय - उदायी नामका धर्मप्रवर्तक हूँ, लेकिन तुम्हारा L दीक्षित गोशालक नहीं हूँ । प्रभुने कहा- सत्य क्यों बोलता है, वही गोशालक तो है । अब तो गोशालक गर्म होकर बहुत ही अंट-सट बोलने लगा । यह अनुचित वर्ताव देखकर क्रमश. सर्वानुभूति और सुनक्षत्रमुनि रुक नहीं सके एवं कहने लगे-अरे गोशालक | अपने उपकारी धर्मगुरु के साथ यह क्या व्यवहार कर रहे हो ? कुछ विचार तो करो । ठहरो ! ठहरो || करता हूँ विचार, ऐसे कहकर क्रोधी गोशालकने तेजोलेश्या छोड़ दी, उससे वे दोनों मुनि भस्मसात् हो गये और क्रमशः आठवें एव बारहवें स्वर्ग मे गये । फिर हित शिक्षा देने से प्रभु पर भी उसी शक्तिका प्रयोग करता हुआ बोला-श्रो महावीर । मेरे इस तेजसे जलकर { ܐ ܐ 2 1. • महीनों के अन्दर ही तुम मर जाओगे । प्रभुने कहा- गोशालक 1 मैं तो सोलह वर्ष तक सानन्द विचरूँगा, किन्तु तेरे अपने ही तेज़से जलकर तू जसे सातवे दिन मृत्यु को प्राप्त होगा । ठीक ऐसा ही हुआ । यद्यपि उसके तेजसे प्रभुका शरीर A

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