Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 93
________________ प्रसङ्ग वीसवां ८१ था, कि जो कुछ होना है वह ही होता है, उद्यम करना व्यर्थ है। ___ सावत्थीमें भीषण उत्पात प्रभुसे अलग होनेके लंगमग अठारह वर्ष बाद एक बार भगवान् सावत्यो नगरी पधारे हुए थे और गोशालक भी वहीं था। मिक्षाके लिए जाते समय श्री गौतमस्वामीने लोगोंके मुंहसे सुना-- आजकल यहां दो तीर्थंकर विचर रहे हैं। वे प्रभुके पास आकर प्राश्चर्यसे पूछने लगे-प्रभो! क्या गोशालक भी तीर्थकर एव उर्वज्ञ हैं ? प्रभुने कहा, आजसे चौबीस वर्ष पहले यह मेरा शेष्य बना था तथा छ साल मेरे साथ भी रहा था। फिर अलग होकर इसने तेजोलब्धि एवं निमित्तशास्त्रका अध्ययन किया। अव उस अध्ययनके प्रमावसे जगत्को चमत्कार दिखला (हा है और तीर्थंकर कहला रहा है, लेकिन वास्तवमे यह असत्य प्रचार है। में अभी पा रहा हूँ प्रभुकी कही हुई यह वात गोशालकने सुनी एवं वह ऋद्ध हुआ । प्रभुके शिष्य श्री आनन्दमुनि जो भिक्षार्थ भ्रमण कर रहे थे, उन्हें देखकर कहने लगा~ो वे आनन्द । तेरे गुरु जहाँ-तहाँ लोगों में मेरी निन्दा कर रहे हैं, मैं उसे सहन नहीं कर सकता। ला। उन्हें सावधान करदे और कहदे कि मै वहाँ अभी पा रहा हूँ और निन्दाके फल दिखा रहा हूँ। भयभीत-आनन्दमुनिने Inaram" प्रभुसे सारे समाचार कहे। प्रभुने गौतम आदि सब

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