Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 92
________________ ८० जैन-जीवन भस्म हो जाएगा ऐसे सोचकर प्रभुने अपनी शीतल तेजोलेश्या निकाली एवं उष्णतेजको नष्ट करके उसको बचा लिया। लब्धिकी विधि गोशालकने पूछा- भगवान् । इस लब्धिकी विधि क्या है ? प्रभु वोले, वेले-वेले निरन्तर छः मास तक तपस्या करके पारणेमें उबले हुए मुट्ठीभर उड़द और एक चुल्लू गर्म पानी लेकर सूर्यके सामने आतापना लेनेसे यह लब्धि उत्पन्न हो सकती है। कुछ समयके बाद भगवान् उसी मार्गसे वापस आए । तिलके बूटे वाला स्थान आते ही गोशालकने कहा- देखिए भगवन् ! तिल पैदा नहीं हुए है । प्रभु बोले-देख । तेरा उखाड़ा हुआ तिलका बूटा फिरसे खड़ा हो गया है और दाने भी उसमें सात ही हैं। होनहारका यह अद्भुत चमत्कार देखकर गोशालक नियतिवादकी तरफ झुक गया और उसने प्रभुसे अलग होकर घोर तपस्या द्वारा तेजोलब्धि प्राप्त की। फिर श्री पार्श्वनाथ भगवान के शासनसे गिरे हुए छः साधु उसे मिले, उनसे उसने निमित्तशास्त्र पढ़कर दुनियांको सुख-दुख, हानि-लाम और जन्म-मरण सम्बन्धी बातें बतलाई एव चमत्कार को नमस्कारवाली कहावतके अनुसार उसकी भक्तमण्डली बहुत ज्यादा बढ़ गई । बढ़ क्या गई ! भगवान्के होते हुए भी वह तीर्थकर कहलाने लगा । भगवान्के श्रावक थे एक लाख उनसठ हजार और उसके श्रावक थे ग्यारह लाख इकसठ हजारे । वह' : उद्यमको न मानकर होनहारको ही मानता था। उसका कहना

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