Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 59
________________ प्रसङ्ग तेरहवां एई भी उपस्थित हुआ । अपने पितामह, गुरु, मामा एवं भाईयों को देखकर अर्जुन रथके पीछे आ बैठा एवं श्रीकृष्ण से कहने लगा कि मै तो नहीं लड़ेगा । इस तुच्छ पृथ्वी के टुकड़ेके लिए गोत्रहत्या करते मेरा दिल कांप रहा है ।' श्री हरिकी प्रेरणा क्षत्रियधर्मके अनुसार अन्यायीको मारना कोई दोष नहीं, ऐसे कह कर श्रीकृष्णने अर्जुन को उत्साहित किया एवं कौरवोंपाण्डवोंका युद्ध शुरू हुआ। नौ दिन तक भीष्म पितामहने पाण्डव सेनाको खूब मारा। तब कृष्णकी सलाह से शिखण्डीको आगे करके दसवें दिन अर्जुनने उनको गिरा दिया । ग्यारहवे दिन द्रोणाचार्य सेनापति बनकर पाण्डवोंसे खूब लड़े । बारहवे दिन अर्जुन ससप्तकों त्रिगत देशके सुशर्मा आदि वीरोंसे लड़ने गया, इधर राजाभगदत्त पाण्डवोंमे घुसा और मारा गया । तेरहवे दिन गुरु द्रोणने चक्रव्यूह रचा, अभिमन्यु अनेक वीरोंके साथ उसमे प्रविष्ट हुआ। कर्ण, द्रौण, शल्य, कृप, अश्वत्थामा दिने उस चीरको बुरी तरहसें घेर लिया एवं जयंद्रथने उसका सिर काट लिया। चौदहवें दिन क्रुद्ध अर्जुनने जयद्रथको मार दिया, तब न्यायका भंग करके द्रोणने रातको अचानक हमला किया | उसमे कर्णने शक्तिसे घटोत्कचंको मारा और द्रौणने विराट एवं द्र पदके प्राण लिए । , ** + -श्राखिरी चार दिन पन्द्रहवें दिन द्रोणको मरवाने के लिए श्री हरिकी सलाह से

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