Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 77
________________ ६५ प्रसङ्ग सत्रहवां -इन्द्रादि देवोंने कहा- आप घोर परीषहोंको समभावसे सहन करेंगे अतः आपका नाम महावीर उपयुक्त है । ऐसे कहकर प्रशंसा करते हुए इन्द्रादि सब अपने-अपने स्थान गए एवं प्रभु कर्मोका नाश करनेके लिए तीन तपस्या करने लगे। तपस्या कमसे कम दो उपवास और ऊपरमें पक्ष, मास, दो मास, तीन मास, चार मास यावत् छः मास तक भी की। छद्मस्थकाल भगवान्ने प्रायः तपस्यामें ही व्यतीत किया । बारह वर्ष तेरह पक्षोंमे केवल ग्यारह महीने बीस दिन आहार लिया और ग्यारह वर्प छ. महीनेपच्चीस दिन निराहार रहे । तपस्या में उन्होंने पानी कभी नहीं पिया और प्रायः ज्ञान, ध्यान, मौन एवं योगासन ही करते रहे। साढ़े बारह वर्षों में मात्र एक मुहूर्त नींद ली। प्रभुने तपस्याके साथ-साथ बड़े-बड़े अभिग्रह किए, उनमे तेरह बोलका अभिग्रह बहुत ही उत्कृष्ट था, जो पॉच महीना पच्चीस दिनके बाद सती चन्दनवालाकै हाथसे सम्पन्न हुआ। उपसर्गोकी झांकी तपस्याके समय देवता, मनुष्य एवं तिर्यञ्चों द्वारा अनेक भीषण उपसर्ग किए गए, उनमेंसे कुछ एक नीचे दिए जा रहे है-- यक्षालयमें ध्यानस्थ अवस्थामें शूलपाणि यक्षने अनेक उपद्रव किए। चण्डकौशिक सांपकी बांबी पर ध्यान करते समय उसने तीन बार डंक मारा, उससे घोर पीड़ा हुई।

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