Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 79
________________ प्रसङ्ग सत्रहवां ६७ वीरने अद्भुत वीरताके साथ कर्मशत्रुओंसे युद्ध किया । आखिर कर्म शत्रु हारे और वैसाख शुक्ला दशमीके दिन प्रभु केवलज्ञानी वने । मध्यमअपापा नगरीमें समवसरण हुआ। इन्द्रादि दर्शनार्थ प्राए । चमत्कार देखकर विद्याका अभिमान करते हुए चवालीस सौ छात्रोंसे परिवृत इन्द्रभूति-गौतम आदि ग्यारह वेदान्तीब्राह्मण समवसरणमें उपस्थित हुए। लेकिन प्रभावित होकर कुछ वोल नहीं सके एवं अपने मनकी शंकाओंका समाधान पाकर समीने भगवानके पास दीक्षा ग्रहण करली । चार तीर्थों की स्थापना हुई, गौतम आदि चौदह हजार साधु हुए, चन्दनवाला आदि छत्तीस हजार साध्वियों हुई, आनन्द आदि एक लाख उनसठ इजार श्रावक हुए और सुलसा आदि तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएं हुई। प्रभुने धर्म मार्गमें जातिको महत्त्व न देकर गुण एवं कर्मको ही मुख्य माना। हर एक जातिको उन्होंने अपने संघमें स्थान दिया। उदायन-प्रसन्नचन्द्र श्रादि बड़े-बड़े नरेशोंने मृगावती-चेलना आदि महारानियोंने तथा शिवराज-स्कन्दक आदि संन्यासियोंने प्रभुके पास संयम स्वीकार किया और नेणिक आदि राजा उनके परम श्रद्धालु भक्त हुए। भगवान्ने अहिंसाको उत्कृष्ट धर्म बताया और यज्ञोंमे होनेवाली हिंसाका उग्र विरोध किया। तीस वर्ष तक विश्वको सन्मार्गमें लगाकर राजा हस्तपालकी राजधानी पावापुरीमें अन्तिम

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