Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 67
________________ प्रसङ्ग पन्द्रहवां पता तक नहीं है । प्रभुकी इस वाणीसे कमठ लाल होकर कहने लगा, राजकुमार ! चले जाओ चुप-चाप, बोलोगे तो ठीक नहीं होगा । मैं धर्मका मूल एवं फूल सब कुछ जानता हूं, मुझे शिक्षा देनेका कष्ट न करो। नाग-नागिनी का उद्धार बस, बात ही बातमें विवाद बढ़ गया और प्रभुने सहस्रों नगरनिवासियोंके सामने वह लकड़ा चिराया तो उसमेंसे तड़फते हुए नाग-नागिनी निकले। दयालु भगवान्ने उनका उद्धार करने के लिए श्री नमस्कार-महामन्त्र सुनाया एवं उन्होंने उसे श्रद्धापूर्वक सुन लिया । शुभ भावनासे मर कर वे दोनों नागकुमारोंके इन्द्रइन्द्राणी धरणेन्द्र एव पद्मावती बन गये।। इस अनूठे दृश्यने वातावरणको वदल डाला। तापसके अनन्यभक्त भी उसे ठग, धूर्त और पाषण्डी कहने लगे। प्रभुने मी मौका पा कर उपदेश दिया-जैसे धौला-धौला सारा दूध और पीला-पीला सारा सोना नहीं होता, वैसे ही साधुके वेष वाले सारे साधु नहीं होते । फिर अहिंसाधर्मका मर्म समझाते हुए उन्होंने कहा- जिस धार्मिकसाधनाके लिए किसी भी प्रकारकी हिंसा की जाती हो, वास्तवमें वह साधना धर्मसाधना ही नहीं है । हिंसात्मक-साधनामें धर्म माननेवाले अज्ञानी एवं अनार्य हैं। __ मगवानका यह अनमोल ज्ञान सुनकर लोग काफी कुछ समझे और तापसको धिक्कारते हुए अपने-अपने घर चले गये।

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