Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 73
________________ प्रसङ्ग सोलहवां '' बोझा प्राय नहीं घटता, तो फिर अरूपी एक जीव. . निकलने पर बोझा कैसे घट सकता है । ८. राजा- एक दिन मैंने काट-काट कर चोरके टुकड़े कर दिए, लेकिन निकलता जीव नज़र क्यों नहीं चढ़ा? ___गुरु- तू लकड़हारे जैसा मूर्ख है । अरुपी जीव इन चर्म चक्षुओंसे कैसे देखा जा सकता है ? ६. राजा- यदि सब जीव बरावर हैं तो शरीर छोटे-बड़े क्यों ? गुरु- दीपकके प्रकाशकी तरह जीवका भी संकोच एवं विकासका स्वभाव है। १०. राजा- महाराज ! आपकी बातें तो सच्ची हैं, किन्तु बाप दादोंका धर्म कैसे छोडू? गुरु- सच्चा धर्म समझकर भी अगर भूठको नहीं छोडेगा तो लोह्वनिएकी तरह रोना पडेगा। राजा बोला-गुरुदेव ! मै ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। सबके सामने आपको गुरु बनाऊँगा एवं धर्म धारण करूगा । राजा घर आया और दूसरे दिन रानी, पुत्र आदिको साथ लेकर उसने जैनधर्म स्वीकार किया एवं श्रावकके बारह व्रत ग्रहण किए। राज्यके चार भाग करके राजा छठ्ठ-छट्ठ तपस्या करने लगा। स्वार्थपूर्ति न होनेसे रानीने तेरहवें वेलेके पारनेमे उसे जहर दे दिया। पता लग जाने पर भी राजाने रानी पर बिल्कुल क्रोध नहीं किया और अनशन करके सूर्याम नामका महर्धिक देवता बना। फिर दर्शनार्थ भगवान् महावीरके पास आया एव उसने

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