Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 47
________________ प्रसङ्ग ग्यारहवां धधकते-अङ्गारे धन्य हैं गजसुकुमाल मुनि, जिन्होंने दहदहाते-अङ्गारे डाल देने पर भी अपना सिर नहीं हिलाया और मुंहसे आह तक नहीं की। देखिए जरा-सा क्षमाके आदर्शमें अपना मुंह । राजमाता देवकीके घर एक दिन भिक्षार्थ दो मुनि आए । देवकीने भक्तिपूर्वक उन्हें केसरियामोदक बहिराये। थोड़ी देर बाद मुनि फिर आए, एवं सहर्ष लड्डु देकर उनका सम्मान किया। लेकिन तीसरी वार आने पर उससे रहा नहीं गया और लड़ देकर ऐसे कहने लगी कि मुझे खेद है । जो मेरे शहर में मुनियोंको पूरी भिक्षा नहीं मिलती ! अन्यथा एक ही घरमे तीसरी बार आनेका कष्ट आपको क्यों करना पड़ता? मुनि बोले-वहिन ! हमतो पहली बार ही आए हैं, किन्तु समान रूप देखकर तू हमें पहचान नहीं सकी, ऐसा प्रतीत होता है । हम छहों भाई भहिलपुरनिवासी नागसेठ एवं सुलसा सेठानीके पुत्र हैं। विवाहके बाद नेमिप्रभुकी वाणी सुनकर हम साधु बन गये और छठ-छठ तपस्या करते हुए प्रभुके साथ विचर रहे हैं। मुनिकी बात सुननेसे देवकीको कंस द्वारा मारे , गये अपने छहों पुत्र याद आ गए और वह फौरन भगवान्के पास जाकर अपने मृत-पुत्रोंके विपयमें पूछने लगी। प्रभुने कहा-ये छहों पुत्र तेरे ही है। कंसके मार देने पर भी जीवित रह गये।

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