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प्रसङ्ग छट्टा दवा नहीं की
( राजर्षि-सनत्कुमार ) ममी कहते हैं-काया कच्ची है, कांचकी गिलास है, मिट्टी की ढेरी है एवं देखते-देखते नष्ट होने वाली है। लेकिन थोड़ासा सरदर्द होते ही एस्प्रोकी गोलियाँ खोजी जाती हैं, थोड़ा-सा बुखार होते ही इन्जेक्शनकी तैयारियाँ होने लगती हैं, और तो क्या। जरासी बदहज़मी होने पर मी फटा-फट सोडेकी बोतल खोली जाने लगती हैं। अब बतलाइए, खाली कायाकच्ची कहने से क्या बना ? वास्तवमें काया कच्ची श्रीसनत्कुमार चक्रवर्ती (जो श्रीधर्मनाथ और शान्तिनाथ भगवान् के मध्यकाल में हुए) ने समझी थी। एक जीमसे कितना-क कहा जाये। उन्होंने सात-सौ वर्ष तक अनेक मयकर रोग सहन किए, किन्तु दवा बिल्कुल नहीं की।
देवोंका आगमन एक दिन स्वर्गमे इन्द्रने कहा कि सनत्कुमार-चक्रवर्तीका जैसा रूप है, वैसा आज दुनियामें किसीका नहीं है। यह सुनकर परीक्षार्थ दो मिथ्यात्विदेवता वृद्धत्राह्मणोंका रूप बनाकर पाए । यद्यपि चक्रवर्ती उस समय स्नान कररहे थे, फिर भी अतिउत्सुकता जानकर उन्हें अन्दर आने दिया। आश्चर्यकारी रूप देखवर प्राह्मण बोले, माई ! रूप तो वास्तव मे रूप ही है, इसकी जितनी प्रशंसाकी जाए थोड़ी है। चक्रवर्तीके मनमे प्रशंसा सुनकर अहंकार हुआ। वे कहने