Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 42
________________ जैन-जीवन मारा गया और देवों मनुष्योंने मिलकर राम-कृष्णको बिसंडाधीश नौवें बतदेव-वासुदेव घोपित किया एवं सोलह हजार राजा और बारह हजार देवता उनकी सहर्ष सेवा करने लगे। श्री कृष्णने कुमार-अरिष्टनेमिका विवाह करने के लिए काफी धूम-धाम की, लेकिन नहीं हो सका। उन्होंने दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त किया और बाईसवें तीर्थकर वनकर दुनियां के कल्याणार्थ गांवों-नगरोंमें बिहरण किया। श्री कृष्ण उनके परम श्रद्धालु भक्त थे। एकदा प्रभु द्वारकामे पधारे, कृष्ण दर्शानार्थ गये और वाणी सुनकर पलने लगे-नाथ ! इस देव-निर्मित द्वारकापुरीका क्या होगा और मेरी मृत्यु किस तरह होगी? भगवान्ने फरमाया-कृष्ण ! नदिरापानके दोपसे द्वेमापन-ऋषि द्वारा इसका नाश होगा तथा विमाज भाई जराकुमारके हाथसे तुम्हारी मृत्यु होगी। मदिराका बहिष्कार प्रभुकी बात सुनकर कृष्णने प्रलयंकारिणी मदिराफे उत्सा. दन पर पूरा-पूरा प्रतिबन्ध लगाया और जो थी उसे जंगलमै दुलवाकर नगरमे उद्घोपणा करवा दी कि कोई मदिरापान मत परी और त्याग वैराग्य एघ तपस्या में लीन बनकर श्रात्मकल्याण करो। विनाश बहन दी जमीन है, जिम किसीको भी संयम लेना होपनी ली। पिछली चिन्ता मत करो। मैं सबकी सम्मान कर लगा। इन उद्योपणाने नगरम बहुन त्याग-राग्य बढ़ा। ना तो नर नारियौन मनुके पास दीक्षा स्वीकार की। (कृष्णकी मानामा रनिनशी आदि महारानियां पुत्र एवं पारिवारिक

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