________________
प्रसङ्ग आठ वां और मोहका भेद समझनेवाले पुरुष तत्त्वज्ञानी विरले ही हैं।
रंगमें भंग भगवान् के वापस फिरते ही रंगमें भंग हो गया और हाहाकार मचगया। दोनों ही पनोंके मुख्यपुरुपोंने काफी कुछ कोशिशें की, लेकिन प्रभुने एक भी नहीं सुनी। स्वस्थान आकर परम्परागत-व्यवहारानुसार वार्पिकदान दिया (जिसमे प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख एव वर्ष मे तीन अरव अठासी करोड अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी) फिर सहस्राम्रवनमे इन्द्रादि देवों एवं कृष्णादिनरेशोंके सम्मुख पंचमुष्टि-लौच करके उन्होंने भागवती दीक्षा स्वीकार की। चौवनदिन बाद मोहकर्मका नाश करके वे केवलज्ञानी बने और बाईसवे तीर्थंकर कहलाए । कृष्ण-वासुदेव भगवानके अनन्य भक्त थे। उन्होंने प्रभुकी बड़ी सेवाएँ की। प्रद्यु - म्नकुमार आदि कृष्ण के पुत्रों एव सत्यभामा, रुक्मिणी आदि अनेकों रानियोंने प्रभुके पास संयम स्वीकार किया।
विशेष उपकारके कारण भगवान् द्वारकानगरीमे बहुत बार पधारे। उनके शासनकालमे अठारह हज़ार साधु हुए, राजीमती
आदि चालीस हजार साध्वियों हुई । एक लाख ६६ हजार श्रावक हुए और तीन लाख ३६ हज़ार श्राविकाएँ हुईं। प्रभु तीन-सौ वर्ष घरमे रहे और सात-सौ वर्ष संयम पालकर पांच-सौ छत्तीस साधुओं के साथ रैवताचल पर्वत पर निर्माणको प्राप्त हुए।