Book Title: Jain Jivan
Author(s): Dhanrajmuni
Publisher: Chunnilal Bhomraj Bothra

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Page 26
________________ लेन जीवन १४ समय पर वे युद्ध मी करते थे, देश-द्रोहियों को दण्ड मी देते थे और इधर अपनी प्रिय प्रजाका पालन भी पूरे ध्यान करते थे। लेकिन यह सब काम उनके लिए मात्र नट की तरह पार्ट अदा करना था। अनासनिकी पराकाष्टा उनकी अनासक्ति पदवी-पढ़ती इतनी बढ़ गई थी कि एकदिन वे अपने काचके महतमे वस्त्र निकालकर नहाने लगे। उस समय उनको अपना शरीर नग्न-सा प्रतीत हुआ। मात्र एक अंगुली; जिसमे मुद्रिका पहनी हुई थी, मुन्दर लगी। अंगुलीसे मुद्रिका हटा ली तो वह भी नंगी होगई। फिर सारे वस्त्राभूपण धारणा कर लिए तो शरीर पूर्ववत् सुन्दर लगने लगा। फिर निकाल दिए तो असुन्दर लगने लगा। पस, कुन समय यही काम चालू रहा। अन्त में उन्हें विश्वास होगया कि शरीर तो असुन्दर और नग्न की है, यह शोमा अपरके पदार्थोकी है अतः उस शीरका मोह करके प्रात्माको भूल जाना अमानके सिंघा पोर कुछ नहीं है। चक्रवर्ती ऐमा विचार करते करते शुक्लध्यानमे जुद गये और घातिक काँका नाश करके उमी कांचक महल में केवलज्ञानी बन गये। वान्नमें जो अनासकमावसे काम करते हैं, उनके कोका बन्धन याटुन कम होता है।

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